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पद्मपुराणे
बलोद्रेकादयं तुङ्गात् संक्षोभं परमं गतः । स्मृत्वा पूर्वभवं भूयः शमयोगमशिश्रियत् ॥२६॥ आसीदाघे युगेऽयोध्यानगर्यामुत्तमश्रुतिः । नाभितो मरुदेव्याश्च निमित्तात्तनुमाश्रितः ॥३०॥ त्रैलोक्यक्षोभणं कर्म समुपायं महोदयः । प्रकटत्वं परिप्रापदिति देवेन्द्रभूतिभिः ॥३१॥ विन्ध्यहिमनगोत्तुङ्गस्तनी सागरमेखलाम् । पर्नामिव निजां साध्वीं वश्यां योऽसेवत क्षितिम् ॥३२॥ भगवान् पुरुषेन्द्रोऽसौ लोकत्रयनमस्कृतः । पुरारमत पुर्यस्यां दिवीव त्रिदशाधिपः ॥३३॥ श्रीमानृषभदेवोऽसौ द्युतिकान्तिसमन्वितः । लचमीश्रीकान्तिसम्पन्नः कल्याणगुणसागरः ॥३४॥ विज्ञानी धीरगम्भीरो दृङ्मनोहारिचेष्टितः । अभिरामवपुः सत्त्वी प्रतापी परमोऽभवत् ॥३५॥ सौधर्मेन्द्रप्रधानैर्यस्त्रिदशैरग्रजन्मनि । हेमरत्नघट मेंरावभिषिक्तः सुभक्तिभिः ॥३६॥ गुणान् कस्तस्य शक्नोति वक्तुं केवलिवर्जितः । ऐश्वर्य प्रार्थ्यते यस्य सुरेन्द्ररपि सन्ततम् ॥३७॥ कालं दाघिष्ठमत्यन्तं भुक्त्वा श्रीविभवं परम् । अप्सरःपरमां वीचय तां नीलाञ्जन नर्तकीम् ॥३८॥ स्तुतो लोकान्तिकैर्देवैः स्वयम्बुद्धो महेश्वरः । न्यस्य पुत्रशते राज्यं निष्क्रान्तो जगतां गुरुः ॥३।। उद्याने तिलकाभिख्ये प्रजाभ्यो यदसौ गतः । प्रजागमिति तत्तेन लोके तीर्थ प्रकीर्तितम् ॥४०॥ संवत्सरसहस्त्रं स दिव्यं मेरुरिवाचलः । गुरुः प्रतिमया तस्थौ त्यक्ताशेषपरिग्रहः ॥११॥ स्वामिभक्त्या समं तेन ये श्रामण्यमुपस्थिताः । षण्मासाभ्यन्तरे भग्ना दुःसहैस्ते परीष हैः ॥४२॥
उन्होंने कहा कि यह हाथी अत्यधिक पराक्रमको उत्कटतासे पहले तो परम क्षोभको प्राप्त हुआ था और उसके बाद पूर्वभवका स्मरण होनेसे शान्तिको प्राप्त हो गया था ॥२६॥ इस कर्मभूमिरूपी युगके आदिमें इसी अयोध्या नगरीमें राजा नाभिराज और रानी मरुदेवीके निमित्तसे शरीरको प्राप्तकर उत्तम नामको धारण करनेवाले भगवान् ऋषभदेव प्रकट हुए थे। उन्होंने पूर्वभवमें तीन लोकको क्षोभित करनेवाले तीर्थङ्कर नाम कर्मका बन्ध किया था उसीके फलस्वरूप वे इन्द्रके समान विभूतिसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए थे ॥३०-३१।। विन्ध्याचल और हिमाचल ही जिसके उन्नत स्तन थे तथा समुद्र जिसकी करधनी थी ऐसी पृथिवीका जिन्होंने सदा अनुकूल चलनेवाली अपनी पतिव्रता पत्नीके समान सदा सेवन किया था ॥३२॥ तीनों लोक जिन्हें नमस्कार करते थे ऐसे वे भगवान ऋषभदेव पहले इस अयोध्यापुरीमें उस प्रकार रमण करते थे जिस प्रकार कि . स्वर्गमें इन्द्र रमण करता है ॥३३॥ वे श्रीमान ऋषभदेव द्युति तथा कान्तिसे सहित थे, लक्ष्मी, श्री और कान्तिसे सम्पन्न थे, कल्याणकारी गुणोंके सागर थे, तीन ज्ञानके धारी थे, धीर और गम्भीर थे, नेत्र और मनको हरण करनेवाली चेष्टाओंसे सहित थे, सुन्दर शरीरके धारक थे, बलवान थे और परम प्रतापी थे ॥३४-३५।। जन्मके समय भक्तिसे भरे सौधर्मेन्द्र आदि देवोंने सुमेरु पर्वतपर सुवर्ण तथा रत्नमयो घटोंसे उनका अभिषेक किया था ॥३६॥ इन्द्र भी जिनके ऐश्वर्यकी निरन्तर चाह रखते थे उन ऋषभदेवके गुणोंका वर्णन केवली भगवान्को छोड़कर कौन कर सकता है ? ॥३७॥ बहुत लम्बे समय तक लक्ष्मीके उत्कृष्ट वैभवका उपभोग कर वे एक दिन नीलाञ्जना नामकी अप्सराको देख प्रतिबोधको प्राप्त हुए ॥३८॥ लौकान्तिक देवोंने जिनकी स्तुति की थीं ऐसे महावैभवके धारी जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेव अपने सौ पुत्रोंपर राज्यभार सौंपकर घरसे निकल पड़े ।।३६।। यतश्च भगवान् प्रजासे निःस्पृह हो तिलकनामा उद्यानमें गये थे इसलिए लोकमें वह उद्यान प्रजाग इस नामका तीर्थ प्रसिद्ध हो गया ॥४०॥ वे भगवान् समस्त परिग्रहका त्यागकर एक हजार वर्ष तक मेरुके समान अचल प्रतिमा योगसे खड़े रहे अर्थात् एक हजार वर्ष तक उन्होंने कठिन तपस्या की ॥४१॥ स्वामिभक्तिके कारण उनके साथ जिन चार हजार राजाओंने मुनिव्रतका धारण किया था वे छ: महीनेके भीतर ही दुःसह परीषहोंसे पराजित हो गये ॥४२॥
१. स्थली म० । २. प्रयाग म० ।
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