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नवाशीतितमं पर्व
तावदेव प्रपद्यन्ते भङ्गं भीत्याऽनुगामिनः । यावत्स्वामिनमीक्षन्ते न पुरो विकचाननम् ॥८५॥ अथोत्तमरथारूढो दिव्यं कार्मुकमाश्रयन् । हारराजितवक्षस्को मुकुटीलोलकुण्डलः ॥ ८६ ॥ शरदादित्यसङ्काशो निःप्रत्यूहगतिः प्रभुः । प्रजन्नभिमुखः शत्रोरत्युप्रक्रोधसङ्गतः ॥८७॥ तदा शतानि योधानां बहूनि दहति क्षणात् । संशुष्कपत्रकूटानि यथा दावोऽरिमर्दनः ॥८८॥ न कश्चिदतस्तस्य रणे वीरोऽवतिष्ठते । जिनशासनवीरस्य यथान्यमत्तदूषितः ॥८॥ योऽपि तेन समं योद्धुं कश्चिद् वान्छति मानवान् । सोऽपि दन्तीव सिंहाम्रे विध्वंसं व्रजति क्षणात् ॥ ६०॥ उन्मत्तसदृशं जातं तत्सैन्यं परमाकुलम् । निपतत्क्षतभूयिष्टं मधुं शरणमाश्रितम् ॥ १॥ रंहसा गच्छतस्तस्य मधुश्चिच्छेद केतनम् । रथाश्वास्तस्य तेनाऽपि विलुप्ताः क्षुरसायकैः ॥६२॥ ततः सम्भ्रान्तचेतस्को मधुः क्षितिधरोपमम् । वारुणेन्द्रं समारुह्य क्रोधञ्चलितविग्रहः ॥ ६३ ॥ प्रच्छादयितुमुद्युक्तः शरैरन्तरवजितैः । महामेघ इवादित्यबिम्बं दशरथात्मजः ॥१४॥ छिन्दानेन शरान् बद्धकवचं तस्य पुष्कलः । रणप्राघूर्णकाचारः कृतः शत्रुघ्न सूरिणा ॥ ६५ ॥ अथ शूलायुधत्यक्तं ज्ञात्वाऽऽत्मानं निबोधवान् । सुतमृत्युमहाशोको वीच्य शत्रुं सुदुर्जयम् ॥ ६६ ॥ बुद्धाऽमनोऽवसानं च कर्म च क्षीणमूर्जितम् । नैर्ग्रन्थ्यं वचनं धीरः सस्मारानुशयान्वितः ॥१७॥
सामने जाते देख जो अभिमानी योद्धा थे वे पुनः लौट आये || ८४ ॥ सो ठीक ही है क्योंकि अनुगामी-सैनिक भयसे तभी तक पराजयको प्राप्त होते हैं जब तक कि वे सामने प्रसन्नमुख स्वामीको नहीं देख लेते हैं ||५||
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अथानन्तर जो उत्तम रथपर आरूढ़ हुआ दिव्य धनुषको धारण कर रहा था, जिसका वक्षःस्थल हारसे सुशोभित था, जो शिर पर मुकुट धारण किये हुए था, जिसके कुण्डल हिल रहे थे, जो शरत् ऋतु सूर्यके समान देदीप्यमान था, जिसकी चालको कोई रोक नहीं सकता था, जो सब प्रकार से समर्थ था, और अत्यन्त तीक्ष्ण क्रोधसे युक्त था ऐसा शत्रुघ्न शत्रुके सामने जा रहा था ॥ ६६-८७ ॥ जिस प्रकार दावानल, सूखे पत्तोंकी राशिको क्षण भरमें जला देता है उसी प्रकार शत्रुओं को नष्ट करनेवाला वह शत्रुघ्न सैकड़ों योधाओंको क्षण भरमें जला देता था || || जिस प्रकार जिनशासन में निपुण विद्वान के सामने अन्य मतसे दूषित मनुष्य नहीं ठहर पाता है उसी प्रकार कोई भी वीर युद्धमें उसके आगे नहीं ठहर पाता था ॥ ८६ ॥ जो कोई भी मानी मनुष्य, उसके साथ युद्ध करनेकी इच्छा करता था वह सिंहके आगे हाथी के समान क्षणभर में विनाशको प्राप्त हो जाता था ॥६०॥ जो उन्मत्तके समान अत्यन्त आकुल थी तथा जो अधिकांश घायल होकर गिरे हुए योद्धाओंसे प्रचुर थी ऐसी राजा मधुकी सेना मधुकी शरण में पहुँची ॥ ६१ ॥
अथानन्तरमधुने वेग से जाते हुए शत्रुघ्नकी ध्वजा काट डाली और शत्रुघ्नने भी चुराके समान तीक्ष्ण बाणोंसे उसके रथ और घोड़े छेद दिये ||१२|| तदनन्तर जिसका चित्त अत्यन्त संभ्रान्त था, और जिसका शरीर क्रोध से प्रज्वलित हो रहा था ऐसा मधु पर्वत के समान विशाल गजराज पर आरूढ़ होकर निकला ॥ ६३ ॥ सो जिस प्रकार महामेघ सूर्यके बिम्बको आच्छादित कर लेता है उसी प्रकार मधु भी निरन्तर छोड़े हुए बाणोंसे शत्रुघ्नको आच्छादित करनेके लिए उद्यत हुआ ||१४|| इधर चतुर शत्रुघ्नने भी उसके बाण और कसे हुए कवचको छेदकर रणके पाहुनेका जैसा सत्कार होना चाहिए वैसा पुष्कलताके साथ उसका सत्कार किया अर्थात् खूब खबर ली ॥६५॥
अथानन्तर जो अपने आपको शूल नामक शस्त्रसे सहित जानकर प्रतिबोधको प्राप्त हुआ था तथा पुत्रकी मृत्युका महाशोक जिसे पीड़ित कर रहा था ऐसे मधुने शत्रुको दुर्जेय देख कर विचार किया कि अब मेरा अन्त होनेवाला है । भाग्य की बात कि उसी समय उसके प्रचल
१. काननम् म० ।
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