________________
नवाशीतितमं पर्व
गाढक्षतशरीरोऽसौ धृतिं परमदुर्धराम् । अध्यासीनः कृतोत्सर्गः कायादेः सुविशुद्धधीः ॥ ११२ ॥ शत्रुघ्नोऽपि तदागत्य नमस्कारपरायणः । क्षन्तव्यं च त्वया साधो मम दुष्कृतकारिणः ॥ ११३ ॥ अमराप्सरसः संख्यं निरीचितुमुपागताः । पुष्पाणि मुमुचुस्तस्मै विस्मिता भावतत्पराः ॥११४॥ उपजातिवृत्तम्
ततः समाधिं समुपेत्य कालं कृत्वा मधुस्तत्क्षणमात्रक्रेण । महासुखाम्भोधिनिमग्नचेताः सनत्कुमारे विबुधोत्तमोऽभूत् ॥ ११५ ॥ शत्रुघ्नवीरोऽप्यभवत्कृतार्थो विवेश मोदी मथुरां सुतेजाः । स्थितश्च तस्यां गजसंज्ञितायां पुरीव मेघेश्वरसुन्दरोऽसौ ॥ ११६ ॥ एवं जनस्य स्वविधानभाजो भवे भवत्यात्मनि दिव्यरूपम् । तस्मात् सदा कर्म शुभं कुरुध्वं रवेः परां येन रुचिं प्रयाताः ॥ ११७ ॥
इत्यार्षे श्रीरविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे मधुसुन्दरवधाभिधानं नाम नवाशीतितमं पर्व ॥८॥
और बाह्यमें हाथीपर बैठे बैठे ही उसने केश उखाड़कर फेंक दिये ॥ १११ ॥ यद्यपि उसके शरीर में गहरे घाव लग रहे थे, तथापि वह अत्यन्त दुर्धर धैर्यको धारण कर रहा था । उसने शरीर आदि की 'ममता छोड़ दी थी और अत्यन्त विशुद्ध बुद्धि धारण की थी ॥ ११२ ॥ | जब शत्रुघ्नने यह हाल देखा तब उसने आकर उसे नमस्कार किया और कहा कि हे साधो ! मुझ पापीके लिए क्षमा कीजिए ॥११३॥ | उस समय जो अप्सराएँ युद्ध देखने के लिए आई थीं उन्होंने आश्चर्य से चकित हो विशुद्ध भावनासे उस पर पुष्प छोड़े ॥ ११४ ॥ तदनन्तर समाधिमरणकर मधु क्षण मात्रमें ही जिसका हृदय उत्तम सुखरूपी सागर में निमग्न था ऐसा सनत्कुमार स्वर्ग में उत्तम देव हुआ ।। ११५|| इधर वीर शत्रुघ्न भी कृतकृत्य हो गया। अब उत्तम तेजके धारक उस शत्रुघ्नने बड़ी प्रसन्नता से मथुरा में प्रवेश किया और जिस प्रकार हस्तिनापुर में मेघेश्वर - जयकुमार रहते थे उसी प्रकार वह मथुरा में रहने लगा ॥ ११६ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस प्रकार समाधि धारण करनेवाले पुरुष जो भव धारण करते हैं उसमें उन्हें दिव्य रूप प्राप्त होता है इसलिए हे भव्य जनो ! सदा शुभ कार्य ही करो जिससे सूर्यसे भी अधिक उत्कृष्ट कान्तिको प्राप्त हो सको ॥ ११७॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में मधु सुन्दरके वधका वर्णन करनेवाला नवासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥८६॥
१. सख्यं म० । २. प्रयातः म० ।
Jain Education International
१६७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org