________________
पण्णवतितमं पर्व
१९३
परमं चापलं धत्ते निसर्गेण प्लवङ्गमः । किमङ्ग पुनरारुह्य चपलं यन्त्रपक्षरम् ॥४२॥ तरुण्यो रूपसम्पन्नाः पुंसामल्पबलात्मनाम् । हियन्ते बलिभिः छिद्रे पापचित्तैः प्रसह्य च ॥४३॥ प्राप्तदुःखां प्रियां साध्वीं विरहात्यन्तदुःखितः । कश्चित् सहायमासाद्य पुनरानयते गृहम् ॥४॥ प्रलीनधर्ममर्यादा यावनश्यति नावनिः । उपायश्चिन्त्यतां तावत्प्रजानां हितकाम्यया ॥४५॥ राजा मनुष्यलोकेऽस्मिन्नधुना त्वं यदा प्रजाः । न पासि विधिना नाशमिमा यान्ति तदा ध्रुवम् ॥४६॥ नाद्यानसभाग्रामप्रपाध्वपुरवेश्मसु । अवर्णवादमेकं ते मुक्त्वा नान्यास्ति सङ्कथा ॥४७॥ स तु दाशरथी रामः सर्वशास्त्रविशारदः । हृतां विद्याधरेशेन जानकी पुनरानयत् ॥४८॥ तत्र नूनं न दोषोऽस्ति कश्चिदप्येवमाश्रिते । व्यवहारेऽपि विद्वांसः प्रमाणं जगतः परम् ॥४॥ किं च यादृशमुर्वीशः कर्मयोगं निषेवते । स एव सहतेऽस्माकमपि नाथानुवर्तिनाम् ॥५०॥ एवं प्रदुष्टचित्तस्य वदमानस्य भूतले । निरङ्कुशस्य लोकस्य काकुत्स्थ कुरु निग्रहम् ॥५१॥ एक एव हि दोषोऽयमभविष्यन्न चेत्ततः । व्यलम्बयिष्यदेतत्ते राज्यमाखण्डलेशताम् ॥५२॥ एवमुक्तं समाकये क्षणमेकमभून्नृपः । विषादमुगदरावात विचलघ्दयो भृशम् ॥५३॥ अचिन्तयच्च हा कष्टमिदमन्यत्समागतम् । यद्यशोम्बुजस्खण्डं मे दग्धुं लग्नोऽयशोऽनलः ॥५४॥ यस्कृतं दुःसहं सोढं विरहव्यसनं मया । सा क्रिया कुलचन्द्रं मे प्रकरोति मलीमसम् ॥५५॥
'विनीता यां समुद्दिश्य प्रवीराः कपिकेतवः । करोति मलिनां सीता सा मे गोत्रकुमुद्वतीम् ॥५६॥ स्वभावसे ही महाकुटिलचित्त है फिर यदि कोई दृष्टान्त प्रकट मिल जाता है तो फिर उसे कुछ भी कठिन नहीं रहता ॥४१॥ वानर स्वभावसे ही परम चञ्चलता धारण करता है फिर यदि चञ्चल यन्त्र रूपी पञ्जर पर आरूढ़ हो जावे तो कहना ही क्या है ॥१२॥ जिनके चित्तमें पाप समाया हुआ है ऐसे बलवान् मनुष्य अवसर पाकर निर्बल मनुष्योंकी तरुण स्त्रियोंको बलात् हरने लगे हैं ॥४३॥ कोई मनुष्य अपनी साध्वी प्रियाको पहले तो परित्यक्त कर अत्यन्त दुखी करता है फिर उसके विरहसे स्वयं अत्यन्त दुखी हो किसीकी सहायतासे उसे घर बुलवा लेता है॥४४॥ इसलिए हे नाथ! धर्मकी मर्यादा छूट जानेसे जबतक पृथ्वी नष्ट नहीं हो जाती है तक प्रजाके हितकी इच्छासे कुछ उपाय सोचा जाय ॥४५॥ आप इस समय मनुष्य लोकके राजा होकर भी यदि विधि पूर्वक प्रजाकी रक्षा नहीं करते हैं तो वह अवश्य ही नाशको प्राप्त हो जायगी ॥४६॥ नदी, उपवन, सभा, ग्राम, प्याऊ, मार्ग, नगर तथा घरोंमें इस समय आपके इस एक अवर्णवादको छोड़कर और दूसरी चर्चा ही नहीं है कि राजा दशरथके पुत्र राम समस्त शास्त्रों में निपुण होकर भी विद्याधरोंके अधिपति रावणके द्वारा हृत सीताको पुनः वापिस ले आये ॥४७-४८॥ यदि हम लोग भी ऐसे व्यवहारका आश्रय लें तो उसमें कुछ भी दोष नहीं है क्योंकि जगत्के लिए तो विद्वान् ही परम प्रमाण हैं। दूसरी बात यह है कि राजा जैसा काम करता है वैसा ही काम उसका अनुकरण करनेवाले हम लोगोंमें भी बलात् होने लगता है ॥४६-५०।। इस प्रकार दुष्ट हृदय मनुष्य स्वच्छन्द होकर पृथिवी पर अपवाद कर रहे हैं सो हे काकुत्स्थ ! उनका निग्रह करो ॥५१।। यदि आपके राज्यमें एक यही दोष नहीं होता तो यह राज्य इन्द्र के भी साम्राज्य को विलम्बित कर देता ॥५२।। इस प्रकार उक्त निवेदनको सुनकर एक क्षणके लिए राम, विषाद रूपी मुद्गरकी चोटसे जिनका हृदय अत्यन्त विचलित हो रहा था ऐसे हो गये ॥५३।। वे विचार
रने लगे कि हाय हाय, यह बड़ा कष्ट आ पड़ा। जो मेरे यश रूपी कनलवनको जलानेके लिए अपयशरूपी अग्नि लग गई ॥५४॥ जिसके द्वारा किया हुआ विरहको दुःसह दुःख मैंने सहन किया है वही क्रिया मेरे कुल रूपी चन्द्रमाको अत्यन्त मलिन कर रही है ।।५५॥ जिस विनयवती सीताको लक्ष्य कर वानरोंने वीरता दिखाई वही सीता मेरे गोत्ररूपी कुमुदिनीको मलिन
१. विनीतायां ज०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org