________________
पद्मपुराणे
किमिदं हेतुना केन त्वरावानेष लक्ष्यते । कं प्रत्येष सुसंरम्भः किन्नु कस्य भविष्यति ॥५७॥ शस्त्रान्धकारमध्यस्थो निदाघार्कसमद्युतिः । मातः कृतान्तवक्त्रोऽयं कृतान्स इव भीषणः ॥ ५८ ॥ एवमादिकथासक्तनगरीयोषिदीक्षितः । अन्तिकं रामदेवस्य सेनानीः समुपागमत् ॥ ५६ ॥ प्रणिपत्य ततो नाथं शिरसा धरणीस्पृशा । जगाद देव देह्याज्ञामिति सङ्गतपाणिकः ||६०|| पद्मनाभो जगौ गच्छ सीतामपनय द्रुतम् । मार्गे जिनेन्द्रसद्मानि दर्शयन् कृतदोहदाम् ॥ ६१ ॥ सम्मेदगिरिजैनेन्द्र निर्वाणावनिकल्पितान् । प्रदर्श्य चैत्यसङ्घातानाशापूरणपण्डितान् ॥ ६२ ॥ भटनी सिंहनादाऽऽख्य' नीत्वा जनविवर्जिताम् । अवस्थाप्यतिका सौम्य स्वरितं पुनरावज ॥६३॥ यथाज्ञापयसीत्युक्त्वा वितर्कपरिवर्जितः । जानकीं समुपागम्य सेनानीरित्यभाषत ॥ ६४ ॥ उतिष्ठ रथमारोह देविकुर्वभिवान्छितम् । प्रपश्य चैत्यगेहानि भजाशंसाफलोदयम् ||६५|| इति प्रसाद्यमाना सा सेनान्या मधुरस्वनम् । प्रमोदमानहृदया स्थमूलमुपागता ॥ ६६॥ जगाद च चतुर्भेदः सङ्घो जयतु सन्ततम् | जैनो जयतु पद्माभः साधुवृत्तैकतत्परः ॥ ६७॥ "प्रमादापतितं किञ्चिदसुन्दर विचेष्टितम् । मृष्यन्तु सकलं देवा जिनालयनिवासिनः ।।६८ || मनसा कान्तसक्तेन सकलं च सखीजनम् । न्यवर्तयनिगद्यैवमत्यन्तोत्सुकमानसा ||६|| सुखं तिष्ठत सरसख्यो नमस्कृत्य जिनालयान् । एषाऽऽहमात्रजाम्येव कृत्या नोत्सुकता परा ॥ ७० ॥
२०३
यह क्या है ? यह किस कारण उतावला दिखाई देता है ? किसके प्रति यह कुपित है ? आज किसका क्या होनेवाला है ? हे मातः ! जो शस्त्रोंके अन्धकारके मध्य में स्थित है तथा जो ग्रीष्म ऋतुके सूर्यके समान तेजसे युक्त है ऐसा यह कृतान्तवक्त्र यमराजके समान भयंकर है ॥ ५७-५८ ।। इत्यादि कथा में आसक्त नगरकी स्त्रियाँ जिसे देख रही थीं ऐसा सेनापति श्रीराम के समीप आया ॥ ५६॥
तदनन्तर उसने पृथिवीका स्पर्श करनेवाले शिरसे स्वामीको प्रणाम कर हाथ जोड़ते हुए यह कहा कि हे देव ! मुझे आज्ञा दीजिए || ६०|| रामने कहा कि जाओ, सीताको शीघ्र ही छोड़ आओ | उसने जिनमन्दिरोंके दर्शन करनेका दोहला प्रकट किया था इसलिए मार्ग में जो जिनमन्दिर मिलें उनके दर्शन कराते जाना । तीथकरोंकी निर्वाणभूमि सम्मेदाचल पर निर्मित, एवं आशाओंके पूर्ण करनेमें निपुण जो प्रतिमाओंके समूह हैं उनके भी उसे दर्शन कराते जाना । इस प्रकार दर्शन करानेके बाद इसे सिहनाद नामकी निर्जन अटवी में ले जाकर तथा वहाँ ठहरा कर हे सौम्य ! तुम शीघ्र ही वापिस आ जाओ ||६१-६३||
तदनन्तर विना किसी तर्क वितर्कके 'जो आज्ञा' यह कह कर सेनापति सीताके पास गया और इस प्रकार बोला कि हे देवि ! उठो, रथ पर सवार होओ, इच्छित कार्य कर, जिनमन्दिरोंके दर्शन करो और इच्छानुकूल फलका अभ्युदय प्राप्त करो ||६४-६५ ।। इस प्रकार सेनापति जिसे मधुर शब्दों द्वारा प्रसन्न कर रहा था तथा जिसका हृदय अत्यन्त हर्षित हो रहा था ऐसी सीता रथके समीप आई || ६६ || रथके समीप आकर उसने कहा कि सदा चतुर्विध संघकी जय हो तथा उत्तम आचारके पालन करनेमें एकनिष्ठ जिनभक्त रामचन्द्र भी सदा जयवन्त रहें || ६७ || यदि हमसे प्रमाद वश कोई असुन्दर चेष्टा हो गई है तो जिनालय में निवास करने वाले देव मेरे उस समस्त अपराधको क्षमा करें || ६८ || अत्यन्त उत्सुक हृदयको धारण करनेवाली सीताने पतिमें लगे हुए हृदयसे समस्त सखीजनों को यह कह कर लौटा दिया कि हे उत्तम सखियो ! तुम लोग सुखसे रहो। मैं जिनालयों को नमस्कार कर अभी आती हूँ, अधिक उत्कण्ठा
Jain Education International
१. नादास्यां स० । २. त्युक्ता म० । ३. प्रमादात्पतितं म० ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org