Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 238
________________ २२० पद्मपुराणे अस्यां ततो विनीतायां जन्मभूमिप्रतिष्ठिता । प्रतिमा ऋषभादानां नमस्यावः सुसम्पदा ॥४६॥ काम्पिल्ये विमलं नन्तुं यास्यावो भावतस्ततः । धर्म रत्नपुरे चैव धर्मसद्भावदेशिनम् ॥४७॥ श्रावस्त्यां शम्भवं शुभ्रं चम्पायां वासुपूज्य कम् । पुष्पदन्तं च काकन्द्यां कौशाम्ब्यां पद्मतेजसम् ॥४८॥ चन्द्राभं चन्द्रपुयां च शीतलं भद्रिकावनौ। मिथिलायां ततो मल्लिं नमस्कृत्य जिनेश्वरम् ॥ ४६॥ वाराणस्यां सुपार्श्व च श्रेयांसं सिहनिःस्वने । शान्ति कुन्थुमरे चैव पुरे हास्तिनि नामनि ॥५०॥ कुशामनगरे देवि सर्वशं मुनिसुव्रतम् । धर्मचक्रमिदं यस्य ज्वलत्यद्यापि सूज्ज्वलम् ॥५१॥ ततोऽन्यान्यपि वैदेहि जिनातिशययोगतः । स्थानान्यतिपवित्राणि प्रथितान्यखिलेनसः ॥५२॥ त्रिदशासुरगन्धर्वैः स्तुतानि प्रणतानि च । वन्दावहे समस्तानि तत्परायणमानसौ ॥५३॥ पुष्पकान समारुह्य विलङ्घय गगनं द्रुतम् । मया सह जिनान सुमेरुशिखरेष्वपि ॥५४॥ भद्रशालवनोद्भूतैस्तथा नन्दनसम्भवैः । पुष्पैः सौमनसीयश्च जिनेन्द्रानर्चय प्रिये ॥५५॥ कृत्रिमाकृत्रिमान्यस्मिश्चैत्यानभ्यर्य विष्टपे । प्रवन्ध चागमिष्यावः साकेतां दयिते पुनः ॥५६॥ एकोऽपि हि नमस्कारो भावेन विहितोऽर्हतः । मोचयत्येनसो जन्तुं जन्मान्तरकृतादपि ॥५७॥ ममापि परमा कान्ते तुष्टिमनसि वर्तते । चैत्यालयान् महापुण्यान् पश्यामीति त्वदाशया ॥५८॥ काले पूर्णतमश्चने भूते नि:किञ्चने जने । जगत्ताराधिपेनेव येनेशेन विराजितम् ॥५६॥ प्रजानां पतिरेको यो ज्येष्ठत्रैलोक्यवन्दितः । भव्यानां भवभीरूणां मोक्षमार्गोपदेशकः ॥६०॥ • करनेवाले श्री ऋषभ जिनेन्द्रकी पूजा कर उन्हें नमस्कार करेंगे ॥४५॥ फिर इस अयोध्या नगरीमें जन्मभूमिमें प्रतिष्ठित जो ऋषभ आदि तीर्थकरोंकी प्रतिमाएँ हैं उन्हें उत्तम वैभवके साथ नमस्कार करेंगे ॥४६॥ फिर काम्पिल्य नगर में श्री विमलनाथको भावपूर्वक नमस्कार करनेके लिए जावेंगे 'और उसके बाद रत्नपुर नगरमें धर्मके सद्भावका उपदेश देनेवाले श्रीधर्मनाथको नमस्कार करनेके लिए चलेंगे ॥४७॥ श्रावस्ती नगरी में शंभवनाथको, चम्पापुरीमें वासुपूज्यको, काकन्दीमें पुष्पदन्तको, कौशाम्बी में पद्मप्रभको, चन्द्रपुरोमें चन्द्रप्रभको, भद्रिकावनिमें शीतलनाथको, मिथिलामें मल्लि जिनेश्वरको, वाराणसीमें सुपार्श्वको, सिंहपुरीमें श्रेयान्सको, हस्तिनापुरीमें शान्ति कुंथु और अरनाथको और हे देवि ! उसके बाद कुशाग्रनगर-राजगृहीमें उन सर्वज्ञ मुनि सुव्रतनाथकी वन्दना करनेके लिए चलेंगे जिनका कि आज भी यह अत्यन्त उज्ज्वल धर्मचक्र देदीप्यमान हो रहा है ॥४८-५१॥ तदनन्तर हे वैदेहि ! जिनेन्द्र भगवान्के अतिशयोंके योगसे अत्यन्त पवित्र, सर्वत्र प्रसिद्ध देव असुर और गन्धर्वो के द्वारा स्तुत एवं प्रणत जो अन्य स्थान हैं तत्पर चित्त होकर उन सबकी वन्दना करेंगे ॥५२-५३।। तदनन्तर पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो शीघ्र ही आकाशको उल्लंघ कर मेरे साथ सुमेरुके शिखरों पर विद्यमान जिन-प्रतिमाओंकी पूजा करना ॥५४॥ हे प्रिये ! भद्रशाल वन, नन्दन वन और सौमनस वनमें उत्पन्न पुष्पोंसे जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करना ॥५५।। फिर हे दयिते ! इस लोकमें जो कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं उन सबकी वन्दना कर अयोध्या वापिस आवेंगे॥५६।। अर्हन्त भगवान के लिए भाव किया हुआ एक ही नमस्कार इस प्राणीको जन्मान्तरमें किये हुए पापसे छुड़ा देता है ।।५७॥ हे कान्ते ! तुम्हारी इच्छासे महापवित्र चैत्यालयोंके दर्शन कर लूँगा इस बातका मेरे मनमें भी परम संतोष है ॥५८।। पहले जब यह काल अज्ञानान्धकारसे आच्छादित था तथा कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेसे मनुष्य एकदम अकिञ्चन हो गये थे तब जिन आदिनाथ भगवान्के द्वारा यह जगत् उस तरह सुशोभित हुआ था जिस तरहकी चन्द्रमासे सुशोभित होता है ॥५६।। जो प्रजाके अद्वितीय स्वामी थे, ज्येष्ठ थे, तीन लोकके द्वारा वन्दित थे, संसारसे डरनेवाले भव्यजीवों १. "अखिलेनस” सर्वपुस्तकेष्वित्थमेव पाठोऽस्ति किन्तु तस्यार्थः स्पष्टो न भवति । २. येन सेना विराजितम् ज०। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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