________________
नवनवतितम पर्व
अथ क्षणादुपानीतां सुस्तम्भ भक्तिभासुराम् । विमानसदृशीं रम्यां सत्प्रमाणप्रतिष्ठिताम् ॥१॥ वरदर्पणलम्बूषचन्द्रचामरहारिणीम् । हारबुदबदसंयुक्तां विचित्रांशुकशालिनीम् ॥२॥ प्रसारितमहामाल्यां चित्रकर्मविराजिताम् । सुगवाक्षां समारूढा शिबिका जनकात्मजा ॥३॥ ऋद्धया परमया युक्ता महासे निकमध्यगा। प्रतस्थे कर्मवैचित्र्यं चिन्तयन्ती सविस्मया ॥४॥ दिननिभिरतिक्रम्य तदरण्यं सुभीषणम् । पुण्डरीकसुराष्ट्र सा प्रविष्टा साधुचेष्टिता ॥५॥ समस्तसस्यसम्पद्भिस्तिरोहितमहीतलम् । ग्रामैः कुक्कुटसम्पात्यैः 'पुराकारैविराजितम् ॥६॥ पुरै कपुरच्छायैरासेचनकदर्शनम् । पश्यन्ती विषयं श्रीमदुद्यानादि विभूपितम् ॥७॥ मान्ये भगवति श्लाघ्ये दर्शनेन वयं तव । विबूतकिल्विषा जाता कृतार्था भवसङ्गिनः ॥८॥ एवं महत्तरप्रष्ठैः स्तूयमाना कुटुम्बिभिः । सोपायनैपच्छायैर्वन्द्यमाना च भूरिशः ॥९॥ रचितार्धादिसन्मानः पार्थिवैश्च सुरोत्तमैः । कृतप्रणाममत्युद्यं शस्यमाना पदे पदे ॥१०॥ अनुक्रमेण सम्प्राप पौण्डरीकपुरान्तिकम् । मनोभिराममत्यन्तं पौरलोकनिषेवितम् ॥११॥ वैदेवागमनं श्रुत्वा स्वाम्यादेशेन सत्वरम् । उपशोभा पुरे चक्रे परमाधिकृतैर्जनः ।।१२॥ परितो हितसंस्काराः रथ्याः सत्रिकचत्वराः । सुगन्धिभिजलैः सिक्ताः कृताः पुष्पतिरोहिताः ॥१३॥ इन्द्रचापसमानानि तोरणान्युच्छ्रितानि च । कलशाः स्थापिता द्वारे सम्पूर्णाः पल्लवाननाः ॥११॥
अथानन्तर राजा वजजघने क्षण भर में एक ऐसी पालकी बुलाई जिसमें उत्तम खम्भे लगे हुए थे, जो नाना प्रकारके बेल-बूटोंसे सुशोभित थी, विमानके समान थी, रमणीय थी, योग्य प्रमाणसे बनाई गई थी, उत्तम दर्पण, फन्नूस, तथा चन्द्रमाके समान उज्ज्वल चमरोंसे मनोहर थी, हारके बुदबुदोंसे सहित थी, रङ्ग-विरङ्ग वस्त्रोंसे सुशोभित थी, जिस पर बड़ी-बड़ी मालाएँ फैलाकर लगाई गई थीं, जो चित्र रचनासे सुन्दर थी, और उत्तमोत्तम झरोखोंसे युक्त थी। ऐसी पालकी पर सवार हो सीताने प्रस्थान किया। उस समय सीता उत्कृष्ट सम्पदासे सहित थी, महा सैनिकोंके मध्य चल रही थी, कर्मोकी विचित्रताका चिन्तन कर रही थी तथा आश्चर्यसे चकित थी ॥१-४॥ उत्तम चेष्टाको धारण करनेवाली सीता, तीन दिनमें उस भयंकर अटवीको पारकर पुण्डरीक देशमें प्रविष्ट हुई ॥५॥ समस्त प्रकारकी धान्य सम्पदाओंसे जिसकी भूमि भाच्छादित थी, तथा कुक्कुटसंपात्य अर्थात् निकट-निकट बसे हुए पुर और नगरोंसे जो सुशोभित था ॥६।। स्वर्गपुरके समान कान्तिवाले नगरोंसे जो इतना अधिक सुन्दर था कि देखते-देखते तृप्ति ही नहीं होती थी, तथा जो बाग-बगीचे आदिसे विभूषित था ऐसे पुण्डरीक देशको देखती हुई वह आगे जा रही थी ॥७॥ हे मान्ये ! हे भगवति ! हे श्लाघ्ये ! तुम्हारे दर्शनसे हम संसारके प्राणी निष्पाप एवं कृतकृत्य हो गये ।।८॥ इस प्रकार राजाकी कान्तिको धारण करनेवाले गाँवके बड़े-बूढ़े लोग भेंट ले लेकर उसकी बार-वार वन्दना करते थे।।६।।अर्घ आदिके द्वारा सन्मान करनेवाले देव तुल्य राजा उसे प्रणामकर पद-पद पर उसकी अत्यधिक प्रशंसा करते जाते थे ॥१०॥ अनुक्रमसे वह अत्यन्त मनोहर तथा पुरवासी लोगोंसे सेवित पुण्डरीकपुरके समीप पहुँची ॥११॥ सीताका आगमन सुन स्वामीके आदेशसे अधिकारी लोगोंने शीघ्र ही नगरमें बहुत भारी सजावट की ॥१२॥ तिराहों और चौराहोंसे सहित बड़े-बड़े मार्ग सब ओरसे सजाये गये, सुगन्धित जलसे सींचे गये तथा फूलोंसे आच्छादित किये गये ।।१३।। इन्द्रधनुषके समान रङ्ग-विरङ्ग
१. पुराकविराजितं म०। २. परितो धृत-ख०। परितः कृतसत्काराः म० । ३. पल्लवानने म० । २६-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org