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पद्मपुराणे शोकं विरह मा रोदी जिनशासनभाविता । किमातं कुरुषे ध्यानं देवि दुःखस्य वर्द्धनम् ॥७६॥ किं न वैदेहि ते ज्ञाता लोकेऽत्र स्थितिरीदृशी । अनित्याशरणकत्वान्यत्वादिपरिभाविनी ॥७७॥ मिथ्यारष्टिवंधूर्यद्ववच्छोचसि मुहुर्मुहुः । श्रुतार्थवासि साधुभ्यः सततं चारुभावने ॥७॥ ननु जीवेन किं दुःखं न प्राप्तं मूढचेतता । भवभ्रमणसक्तेन मोक्षमार्गमजानता ॥७॥ संयोगा विप्रयोगाश्च भवसागरवर्तिना। क्लेशावर्त्तनिमग्नेन प्राप्ता जीवेन भूरिशः ॥८॥ खजलस्थलचारेण तिर्यग्योनिषु दुःसहम् । दुःखं जीवेन सम्प्राप्तं वर्षाशीतातपादिजम् ॥८॥ अपमानपरीवादविरहाकोशनादिजम् । मनुष्यत्वेऽपि किं नाम दुःखं जीवेन नार्जितम् ॥२॥ कुरिसताचारसम्भूतं ततोत्कृष्टद्धिदृष्टिजम् । स्युतिजं च महादुःखं सम्प्राप्तं त्रिदशेष्वपि ॥८३|| नरकेषु तु यदुःखं तत् कथं कथ्यतां शुभे । शीतोष्ण्यक्षारशस्त्रौघव्यालान्योन्यसमुद्भवम् ॥४॥ विप्रयोगाः समुत्कण्ठा व्याधयो दुःखमृत्यवः । शोकाश्चानन्तशः प्राप्ता भवे जीवेन मैथिलि ॥५॥ तियंगू मधस्ताद्वा स्थानं तनास्ति विष्टपे । जीवेन यत्र न प्राप्ता जन्ममृत्यजरादयः ॥६॥ स्वकर्मवायुना शश्वद् भ्राम्यता भवसागरे । मनुष्यत्वेऽपि जीवेन प्राप्ता स्त्रीतनुरीदृशी ॥७॥ कर्मभिस्तव युक्तायाः परिशेषः शुभाशुभैः । अभिरामो गुणैः रामः पतिर्जातः शुभोदयः ।।८।। पुण्योदयं समं तेन परिप्राप्य सुखोदयम् । अपुण्योदयतो दुःखं पुनः प्राप्ताऽसि दुःसहम् ॥८॥ लाफेिऽसि यत् प्राप्ता पत्या विद्याभृता हृता। 'एकादशदिने भुक्ति मुक्तमाल्यानुलेपना ॥१०॥
सान्त्वना दी थी ॥७५।। साथ ही यह कहा कि हे देवि ! शोक छोड़, रो मत, तू जिन शासनकी महिमासे अवगत है । दुःखका बढ़ानेवाला जो आर्तध्यान है उसे क्यों करती है ? ॥७६॥ हे वैदेहि ! क्या तुझे ज्ञात नहीं है कि संसारकी स्थिति ऐसी ही अनित्य अशरण एकत्व और अन्यत्व आदि रूप है ॥७७॥ जिससे तू मिथ्यादृष्टि स्त्रीके समान बार-बार शोक कर रही है । हे सुन्दरभावनावाली ! तूने तो निरन्तर साधुओंसे यथार्थ बातको सुना है ।।७।। निश्चयसे सम्यग्दर्शनको न जान कर संसार भ्रमण करनेमें आसक्त मूढ हृदय प्राणीने क्या-क्या दुःख नहीं प्राप्त किया है ? ||७६॥ संसार रूपी सागरमें वर्तमान तथा क्लेश रूप भँवरमें निमग्न हुए इस जीवने अनेकी बार संयोग और वियोग प्राप्त किये हैं ॥८०|| तिर्यञ्च योनियों में इस जीवने खेचर जलचर और स्थलचर होकर वर्षा शीत और आतप आदिसे उत्पन्न होनेवाला दुःख सहा है ॥१॥ मनुष्य पर्यायमें भी अपमान निन्दा विरह और गाली आदिसे उत्पन्न होनेवाला कौन-सा महादुःख इस जीवने नहीं प्राप्त किया है ? ॥२॥ देवों में भी हीन आचारसे उत्पन्न, बढ़ी-चढ़ी उत्कृष्ट ऋद्धिके देखनेसे उत्पन्न एवं वहाँसे च्युत होनेके कारण उत्पन्न महादुःख प्राप्त हुआ है ॥३॥ और हे शुभे! नरकोंमें शीत, उष्ण, क्षार जल, शस्त्र समूह, दुष्ट जन्तु तथा परस्परके मारण ताडन आदिसे उत्पन्न जो दःख इस जीवने प्राप्त किया है वह कैसे कहा जा सकता है ? ॥५४॥ हे मैथिलि ! इस जीवने संसारमें अनेकों बार वियोग, उत्कण्ठा, व्याधियाँ, दुःख पूर्ण मरण और शोक प्राप्त किये हैं ॥५॥ इस संसारमें ऊर्ध्व मध्यम अथवा अधोभागमें वह स्थान नहीं है जहाँ इस जीवने जन्म मृत्यु तथा जरा आदिके दुःख प्राप्त नहीं किये हों ।।८६॥ अपने कर्मरूपी वायुके द्वारा संसार-सागरमें निरन्तर भ्रमण करनेवाले इस जीवने मनुष्य पर्यायमें भी स्त्रीका ऐसा शरीर प्राप्त किया है ॥८७॥ शेष बचे हुए शुभाशुभ कर्मों से युक्त जो तू है सो तेरा गुणांसे सुन्दर तथा शुभ अभ्युदयसे युक्त राम पति हुआ है ।।८।। पुण्योदयके अनुसार उसके साथ सुखका अभ्युदय प्राप्त कर अब पापके उदयसे तू दुःसह दुःखको प्राप्त हुई है ||६देख, रावणके द्वारा हरी जा कर तू लङ्का पहुँची, वहाँ तूने माला तथा लेप आदि लगाना छोड़ दिया तथा ग्यारहवें दिन
१. एकादशे दिवे भुक्तिं मुक्तिमाल्यानुलेपना म०।
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