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पद्मपुराणे
किंवा विभूषणैरेभिस्तिष्ठन्तु त्वयि दक्षिणे । भावयोगं प्रपद्यस्व किमर्थमसि विला ||१५|| श्रीमानयं परिप्राप्तो वज्रजङ्घ इति क्षितौ । प्रसिद्धः सकलैर्युक्तो राजधर्मैर्नरोत्तमः ॥ १६ ॥ सम्यग्दर्शनरत्नं यः सादृश्यपरिवर्जितम् । अविनाशमनाधेयमहार्यं सारसौख्यदम् ॥१७॥ शङ्कादिमलनिर्मुक्तं हेमपर्वतनिश्चलम् । हृदयेन समाधत्ते सचेता भूषणं परम् ॥ १८ ॥ सम्यग्दर्शनमीदृक्षं यस्य साध्वि विराजते । गुणास्तस्य कथं श्लाध्ये वर्ण्यन्तामस्मदादिभिः ॥ १६ ॥ जिनशासन तत्त्वज्ञः शरणागतवत्सलः । परोपकारसंसक्तः करुणादितमानसः ||२०|| लब्धवर्णो विशुद्धात्मा निन्द्यकृत्य निवृत्तधीः । पितेव रक्षिता लोके दाता भूतहिते रतः ॥ २१ ॥ दीनादीनां विशेषेण मातुरप्यनुपालकः । शुद्धकर्मकरः शत्रुमहीधर महाशनिः ॥२२॥ शस्त्रशास्त्रकृतश्रान्तिरश्रान्तिः शान्तिकर्मणि । जानात्यन्यकलत्रं च कूपं साजगरं यथा ॥ २३॥ धर्मे परममासक्तो भवपातभयात्सदा । सत्यस्थापितसद्वाक्यो बाढं नियमितेन्द्रियः ॥ २४ ॥ अस्य देवि गुणान् वक्तुं योऽखिलानभिवाञ्छति । तरितुं सं ध्रुवं वष्टिं गात्रमात्रेण सागरम् ॥२५॥ यावदेषा कथा तेषां वर्तते चित्तबन्धिनी । तावन्नृपः परिप्राप्तः किञ्चिद्भुतसङ्गतः ॥२६॥ अवतीर्य करेणोश्च योग्यं विनयमुद्रहन् । निसर्गशुद्धया दृष्ट्या पश्यनेवमभाषत ॥ २७ ॥ अहो वज्रमयो नूनं पुरुषः सविचेतनः । यतस्त्यजन्निहारण्ये त्वां न दीर्णः सहस्रधा ॥ २८ ॥
कारणमेतस्या अवस्थाया शुभाशये । विश्वस्ता भव मा भैषीर्गर्भायासं हि मा कृथाः ॥ २६ ॥
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यथार्थ बात समझने में मूढ पुरुषोंने भयभीत होकर पुनः कहा कि हे देवि ! भय तथा शोक छोड़ो, धीरताका आश्रय लेओ ||१४|| हे सरले ! इन आभूषणोंसे हमें क्या प्रयोजन है ? ये तुम्हारे ही पास रहें। भाव योगको प्राप्त होओ अर्थात् हृदयको स्थिर करो और बताओ कि चिह्नल क्यों हो ? -- दुःखी क्यों हो रही हो ? || १५ || जो समस्त राजधर्मसे सहित है तथा पृथिवी पर वज्रजङ्घ नामसे प्रसिद्ध है ऐसा यह श्रीमान् उत्तम पुरुष यहाँ आया है ||१६|| सावधान चित्त से सहित यह वज्रजङ्घ सदा उस सम्यग्दर्शन रूपी रत्नको हृदयसे धारण करता है जो सादृश्यसे रहित है, अविनाशी है, अनाधेय है, अहार्य है, श्रेष्ठ सुखको देनेवाला है, शङ्कादि दोषों से रहित है, सुमेरुके समान निश्चल है और उत्कृष्ट आभूषण स्वरूप है ॥१७- १८ || हे साध्वि ! हे प्रशंसनीये ! जिसके ऐसा सम्यग्दर्शन सुशोभित है उसके गुणोंका हमारे जैसे पुरुष कैसे वर्णन कर सकते हैं ? ||१६|| वह जिन शासनके रहस्यको जाननेवाला है, शरण में आये हुए लोगों से स्नेह करनेवाला है, परोपकार में तत्पर है, दयासे आर्द्रचित्त है, विद्वान् है, विशुद्ध हृदय है, निन्द्य कार्यों से निवृत्त बुद्धि है, पिताके समान रक्षक है, प्राणिहित में तत्पर है, दीन-हीन आदिका तथा खास कर मातृ-जातिका रक्षक है, शुद्ध कार्यको करनेवाला है, शत्रुरूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए महावस्त्र है । शस्त्र और शास्त्रका अभ्यासी है, शान्ति कार्य में थकावट से रहित है, परस्त्रीको अजगर सहित कूपके समान जानता है, संसार-पातके भय से धर्म में सदा अत्यन्त आसक्त रहता है, सत्यवादी है और अच्छी तरह इन्द्रियोंको वश करनेवाला है ।।२०- २४॥ हे देवि ! जो इसके समस्त गुणोंको कहना चाहता है वह मानो मात्र शरीर से समुद्रको तैरना चाहता है ||२५|| जबतक उन सबके बीच मनको बाँधनेवाली यह कथा चलती है तबतक कुछ आश्चर्य से युक्त राजा वज्रजन भी वहाँ आ पहुँचा ॥ २६ ॥ हस्तिनीसे उतर कर योग्य विनय धारण करते हुए राजा वज्रजङ्घने स्वभाव शुद्ध दृष्टि से देखकर इस प्रकार कहा कि ||२७|| अहो ! जान पड़ता है कि वह पुरुष वस्त्रमय तथा चेतनाहीन है इसलिए इस वनमें तुम्हें छोड़ता हुआ वह हजार टूक नहीं हुआ है ॥२८॥ हे शुभाशये ! अपनी इस अवस्थाका कारण कहो, निश्चिन्त होओ, डरो मत तथा गर्भको कष्ट मत पहुँचाओ ||२६||
१. भावं योगं म० । २. मानुष्या अनुपालकः म० । ३. कामयते । ४. सुविचेतनः म० ।
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