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अष्टनवतितमं पर्व
ततः पुरो महाविद्यानिरुद्धामिव जाह्नवीम् । चक्रीभूतां च दृष्टा वज्रजङ्घः करेणुगः ॥१॥ पप्रच्छासमपुरुषान् यूयमेवं कुतः स्थिताः । कुतः केन प्रतीवातो गमनस्य किमाकुलाः ॥२॥ पारम्पर्यण ते यावत् पृच्छन्ति स्थितिकारणम् । तावत्किञ्चित्समासीदन् राजा शुश्राव रोदनम् ॥३॥ जगाद च समस्तेषु लक्षणेषु कृतश्रमः । यस्या रुदितशब्दोऽयं श्रूयते सुमनोहरः ॥४॥ विद्यद्गर्भरुचा सत्या गर्भिण्याऽप्रतिरूपया । ध्रुवं पुरुषपद्मस्य भवितव्यं स्त्रियाऽनया ॥५॥ एवमेतत्कुतो देव सन्देहोऽत्र त्वयोदिते । अनेकमद्भुतं कर्म भवता हि पुरेक्षितम् ॥६॥ एवं तस्य सभृत्यस्य कथा यावत्प्रवर्तते । तावदग्रेसरा सीतासमीपं सस्विनो गताः ॥७॥ पप्रच्छुः पुरुषा देवि का त्वं निर्मानुषे वने । विरौपि करुणं शोकमसम्भाव्यमिदं श्रिता ॥८॥ न दृश्यन्ते भवादृश्यो लोकेऽत्राकृतयः शभाः। दिव्या किमसि किं वाऽन्या काचित् सृष्टिरनुत्तमा ॥६॥ यदीदमीदृशं धत्से वपुरक्लिष्टमुत्तमम् । ततोऽत्यन्तं न वालच्यः कोऽयं शोकस्तवापरः ।।१०॥ वद कल्याणि कथ्यं चेदिदं नः कौतुकं परम् । दुःखान्तोऽपि च सत्येवं कदाचिदुपजायते ॥१॥ ततस्तान् सुमहाशोकध्वान्तीकृतसमस्तदिक् । पुरुषान् सहसा दृष्ट्वा नानाशस्त्रकरोज्वलान् ॥१२॥ सीता त्राससमुत्पन्नपृथुवेपथुसङ्घला । दातुमाभरणान्येषां लोलनेत्रा समुद्यता ॥३॥ तत्त्वमूढास्ततो भीता जगदुः पुरुषाः पुनः । सन्त्रासं देवि शोकं च त्यज संश्रय धीरताम् ॥१४॥
अथानन्तर आगे महाविद्यासे रुकी गङ्गानदीके समान चक्राकार परिणत सेनाको देख, हाथी पर चढ़े हुए वनजङ्घने निकटवर्ती पुरुषोंसे पूछा कि तुमलोग इस तरह क्यों खड़े हो गये ? गमनमें किसने किस कारण रुकावट डाली ? और तुमलोग व्याकुल क्यों हो रहे हो ? ॥१-२॥ निकटवर्ती पुरुष जबतक परम्परासे सेनाके रुकनेका कारण पूछते हैं तबतक कुछ निकट बढ़कर राजाने स्वयं रोनेका शब्द सुना ॥३॥ समस्त लक्षणोंमें जिसने श्रम किया था ऐसा राजा वनजङ्घ बोला कि जिस स्त्रीका यह अत्यन्त मनोहर रोनेका शब्द सुनाई पड़ रहा है वह बिजलीके मध्यभागके समान कान्तिवाली, पतिव्रता तथा अनुपम गर्भिणी है । यही नहीं उसे निश्चय ही किसी श्रेष्ठ पुरुषकी स्त्री होना चाहिए ॥४-५॥ हे देव ! ऐसा ही है-आपके इस कथनमें संदेह कैसे हो सकता है ? क्योंकि आपने पहले अनेक आश्चर्यजनक कार्य देखे हैं ॥६॥ इस प्रकार सेवकों और राजा वनजङ्घके बीच जबतक यह वार्ता होती है तबतक आगे चलनेवाले कुछ साहसी पुरुष सीताके समीप जा पहुँचे ॥७॥ उन्होंने पूछा कि हे देवि ! इस निर्जन वनमें तुम कौन हो? तथा असंभाव्य शोकको प्राप्त हो यह करुण विलाप क्यों कर रही हो ? ॥८॥ इस संसारमें आपके समान शुभ आकृतियाँ दिखाई नहीं देतीं। क्या तुम देवी हो ? अथवा कोई अन्य उत्तम सृष्टि हो ? ||६|| जब कि तुम इस प्रकारके क्लेश रहित उत्तम शरीरको धारण कर रही हो तब यह ! बिलकुल ही नहीं जान पड़ता कि तुम्हें यह दूसरा दुःख क्या है ? ॥१०॥ हे कल्याणि ! यदि यह बात कहने योग्य है तो कहो, हमलोगों को बड़ा कौतुक है । ऐसा होने पर कदाचित् दुःखका अन्त भी हो सकता है ॥११॥
तदनन्तर महाशोकके कारण जिसे समस्त दिशाएँ अन्धकार रूप हो गई थीं ऐसी सीता अचानक नाना शस्त्रोंकी किरणोंसे देदीप्यमान उन पुरुषोंको देखकर भयसे एक दम काँप उठी, । उसके नेत्र चञ्चल हो गये और वह इन्हें आभूषण देनेके लिए उद्यत हो गई ॥१२-१३॥ तदनन्तर
१. निकटीमवन् । २. चालक्ष्यः म०। २८-३
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