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पद्मपुराणे
हृदयानन्दनं राममालोक्य नयनोत्सवम् । उल्लसन् मनसो नेमुः प्रबद्धाञ्जलयः प्रजाः ॥२८॥ ater कम्पितदेहास्ता मुहुः कम्पितमानसाः । पद्मो जगाद भो भद्रा ब्रूतागमनकारणम् ॥२३॥ विजयोऽथ सुराजिश्च मधुमान् वसुलो धरः । काश्यपः पिङ्गलः कालः क्षेमाद्याश्च महत्तराः ॥३०॥ निश्चलाश्चरणन्यस्तलोचना गलितौजसः । न किञ्चिदूचुराक्रान्ताः प्रभावेण महीपतेः ॥ ३१ ॥ चिरादुत्सहते वक्तु' मतिर्यद्यपि कृच्छ्रतः । निःक्रामति तथाप्येषा वक्त्रागारान्न वाग्वधूः ||३२|| गिरा सान्वनकारिण्या पद्मः पुनरभाषत । श्रुत स्वागतिनो व्रत कैमर्थ्येन समागताः ॥ ३३ ॥ इत्युक्ता अपि ते भूयः समस्तकरणोज्झिताः । तस्थुः पुस्त इव न्यस्ताः सुनिष्णातेन शिल्पिना || १४ || हीपाशकण्ठबद्धास्ते किञ्चिचञ्चललोचनाः । अर्भका इव सारङ्गा 'जम्लुराकुलचेतसः ||३५|| ततः प्राग्रहरस्तेषामुवाच चलिताचरम् । देवाभयप्रसादेन प्रसादः क्रियतामिति ||३६|| ऊचे नरपतिर्भद्रा न किञ्चिद्भवतां भयम् । प्रकाशयत चित्तस्थं स्वस्थतामुपगच्छत ॥३७॥ rai सकलं त्यक्त्वा साध्विदानीं भजाम्यहम् । मिश्रीभूतं जलं त्यक्त्वा यथा हंसः स्तनोद्भवम् ॥३८॥ अभयेऽपि ततो लब्धे कृच्छ्रप्रस्थापितातरः । जगाद मन्दनिःस्वानो विजयोऽञ्जलिमस्तकः ॥ ३६॥ विज्ञाप्यं श्रूयतां नाथ पद्मनाभ नरोत्तम । प्रजाधुनाऽखिला जाता मर्यादारहितात्मिका ॥४०॥ स्वभावादेव लोकोऽयं महाकुटिलमानसः । प्रकटं प्राप्य दृष्टान्तं न किञ्चित्तस्य दुष्करम् ॥४१॥
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थी ऐसी उस गम्भीर सभाको देखकर प्रजा के लोगों का मन चञ्चल हो गया ||२७|| हृदयको आनन्दित करनेवाले और नेत्रोंको उत्सव देनेवाले श्रीरामको देखकर जिनके चित्त खिल उठे थे ऐसे प्रजाके लोगोंने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया ||२८|| जिनके शरीर कम्पित थे तथा जिनका मन बार-बार काँप रहा था ऐसे प्रजाजनोंको देखकर रामने कहा कि अहो भद्रजनो ! अपने आगमनका कारण कहो ॥२६॥ अथानन्तर विजय, सुराजि, मधुमान्, वसुल, घर, काश्यप, पिङ्गल, काल और क्षेम आदि बड़े-बड़े पुरुष, राजा रामचन्द्रजीके प्रभावसे आक्रान्त हो कुछ भी नहीं कह सके। वे चरणों में नेत्र लगाकर निश्चल खड़े रहे और सबका ओज समाप्त हो गया ॥३०-३१ ॥ यद्यपि उनकी बुद्धि कुछ कहनेके लिए चिरकालसे उत्साहित थी तथापि उनकी वाणी रूपी वधू मुखरूपी घर से बड़ी कठिनाईसे नहीं निकलती थी ॥३२॥
तदनन्तर रामने सान्त्वना देने वाली वाणीसे पुन: कहा कि आप सबलोगों का स्वागत है। कहिये आप सब किस प्रयोजनसे यहाँ आये हैं ॥ ३३ ॥ इतना कहने पर भी वे पुनः समस्त इंद्रियोंसे रहित समान खड़े रहे। निश्चल खड़े हुए वे सब ऐसे जान पड़ते थे कि मानो किसी कुशल कारीगरने उन्हें मिट्टी आदिके खिलौने के रूपमें रच कर निक्षिप्त किया हो - वहाँ रख दिया हो ||३४|| जिनके कण्ठ लज्जा रूपी पाशसे बँधे हुए थे, जो मृगों के बच्चों के समान कुछ कुछ चञ्चल लोचनवाले थे तथा जिनके हृदय अत्यन्त आकुल हो रहे थे ऐसे वे प्रजाजन उल्लास से रहित हो गयेम्लान मुख हो गये ॥३५॥
तदनन्तर उनमें जो मुखिया था वह जिस किसी तरह टूटे-फूटे अक्षरोंमें बोला कि हे देव ! अभयदान देकर प्रसन्नता कीजिये || ३६ || तब राजा रामचन्द्रने कहा कि हे भद्र पुरुषो ! आप लोगों को कुछ भी भय नहीं है, हृदय में स्थित बातको प्रकट करो और स्वस्थताको प्राप्त होओ ॥ ३७ ॥ मैं 'इस समय समस्त पापका परित्याग कर उस तरह निर्दोष वस्तुको ग्रहण करता हूँ जिस प्रकार कि हंस मिले हुए जलको छोड़कर केवल दूधको ग्रहण करता है ॥ ३८ ॥ तदनन्तर अभय प्राप्त होने पर भी जो बड़ी कठिनाईसे अक्षरोंको स्थिर कर सका था ऐसा विजय नामक पुरुष हाथ जोड़ मस्तकसे लगा मन्द स्वर में बोला कि हे नाथ ! हे राम ! हे नरोत्तम ! मैं जो निवेदन करना चाहता हूँ उसे सुनिये, इस समय समस्त प्रजा मर्यादासे रहित हो गई है ॥ ३६-४० ॥ यह मनुष्य १. नगु- म० | नक्षु- ख० ! नक्षु- क० । नगु न० पुस्तके संशोधितपाठः । २. दुग्धम् ।
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