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षण्णवतितमं पर्व
उद्यानेऽवस्थितस्यैवं राघवस्य सुचेतसः । तृषिता इव सम्प्रापुः प्रजा दर्शनकांचया ॥ १॥ श्रावितं प्रतिहारीभिः पारम्पर्यात् प्रजागमम् । विज्ञाय दक्षिणस्याच्णः स्पन्दं प्राप विदेहजा ॥२॥ अन्तिञ्च किं वे निवेदयति मे परम् । दुःखस्याऽऽगमनं नेत्रमधस्तात् स्पन्दनं भजत् ॥ ३ ॥ पापेन विधिना दुःखं प्रापिता सागरान्तरे । दुष्टस्तेन न सन्तुष्टः किमन्यत् प्रापयिष्यति ॥ ४ ॥ निर्मितानां स्वयं शश्वत् कर्मणामुचितं फलम् । ध्रुवं प्राणिभिराप्तव्यं न तच्छक्यनिवारणम् ॥५॥ उपगुण्य प्रयत्नेन शीतांशुकमिवांशुमान् । पालयन्नपि नित्यं स्वं कर्मणां फलमश्नुते ॥ ६ ॥ अगदच्च विचेतस्का देव्यो ब्रूत श्रुतागमाः । सम्यग्विचार्य मेऽधस्ता नेत्रस्पन्दनजं फलम् ॥७॥ तासामनुमती नाम देवी निश्चयको विदा | जगाद देवि को नाम विधिरन्योऽत्र दृश्यते ॥ ८॥ यत् कर्म निर्मितं पूर्वं सितं मलिनमेव वा । स कृतान्तो विधिश्वासौ दैवं तच्च तदीश्वरः || ६ || कृतान्तेनाहमानीता व्यवस्थामेतिकामिति । पृथङ् निरूपणं तत्र जनस्याज्ञानसम्भवम् ॥ १०॥ अथातो गुणदोषज्ञा गुणमालेति कीर्त्तिता । जगाद सान्त्वनोयुक्ता देवीं देवनयाऽन्विताम् ॥११॥ देवि त्वमेव देवस्य सर्वतोऽपि गरीयसी । तवैव च प्रसादेन जनस्थान्यस्य संयुता ॥ १२ ॥ ततोऽहं न प्रपश्यामि सुयुक्तेनापि चेतसा । यत्ते यास्यति दुःखस्य कारणत्वं सुचेष्टिते ॥१३॥
अथानन्तर जब इस प्रकार शुद्ध हृदयके धारक राम महेन्द्रोदय नामक उद्यानमें अवस्थित थे तब उनके दर्शनकी आकांक्षासे प्रजा उनके समीप इस प्रकार पहुँची मानो प्यासी ही हो ॥१॥ 'प्रजाका आगमन हुआ है' यह समाचार परम्परासे प्रतिहारियोंने सीताको सुनाया, सो सीताने जिस समय इस समचारको जाना उसी समय उसकी दाहिनी आँख फड़कने लगी ||२|| सीताने विचार किया कि अधोभाग में फड़कनेवाला नेत्र मेरे लिए किस भारी दुःखके आगमन की सूचना दे रहा है ॥ ३॥ पापी विधाताने मुझे समुद्रके बीच दुःख प्राप्त कराया है सो जान पड़ता है कि " वह दुष्ट उससे संतुष्ट नहीं हुआ, देखूं अब वह और क्या प्राप्त कराता है ? ||४|| प्राणियोंने जो निरन्तर स्वयं कर्म उपार्जित किये हैं उनका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है-उसका निवारण करना शक्य नहीं है ||५|| जिस प्रकार सूर्यं यद्यपि चन्द्रमाका पालन करता है परन्तु प्रयत्नपूर्वक अपने तेजसे उसे तिरोहित कर पालन करता है इसलिए वह निरन्तर अपने कर्मका फल भोगता है (?) व्याकुल होकर सीताने अन्य देवियोंसे कहा कि अहो देवियो ! तुमने तो आगमको सुना है इसलिए अच्छी तरह विचार कर कहो कि मेरे नेत्रके अधोभागके फड़कनेका क्या फल है ? ॥६-७॥ उन देवियों के बीच निश्चय करनेमें निपुण जो अनुमती नामकी देवी थी वह बोली कि हे देवि ! इस संसार में विधि नामका दूसरा कौन पदार्थ दिखाई देता है ? || || पूर्व पर्याय में जो अच्छा या बुरा कर्म किया है वही कृतान्त, विधि, दैव अथवा ईश्वर कहलाता है ||६|| 'मैं पृथग् रहनेवाले कृतान्तके द्वारा इस अवस्थाको प्राप्त कराई गई हूँ, ऐसा जो मनुष्यका निरूपण करना है वह अज्ञानमूलक है ॥१०॥
तदनन्तर गुण दोषको जाननेवाली गुणमाला नामकी दूसरी देवीने सान्त्वना देने में उद्यत हो दुःखिन सीता से कहा कि हे देवि ! प्राणनाथको तुम्हीं सबसे अधिक प्रिय हो और तुम्हारे ही प्रसादसे दूसरे लोगों को सुखका योग प्राप्त होता है ।।११-१२ ॥ इसलिए सावधान चित्त से भी मैं
१. स्वेतन्नि म० । २. दृष्टस्तेन म० । ३. शक्यं निवारणं म० ज० ॥ ४. देवी म० । २. सुखयोगः ।
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