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सप्तनवतितम पर्व
२०३
कथं तद्रागमात्रस्य कृते पापस्य भनिनः । वह निरर्थकं प्राणान् विदधामि मलीमसम् ॥१५॥ भकीर्तिः परमल्पापि याति वृद्धिमुपेक्षिता । कीर्तिरल्पापि देवानामपि नाथैः प्रयुज्यते ॥१६॥ भोगैः किं परमोदारैरपि प्रक्षयवत्सलैः । कीत्युद्यानं प्ररूढं यद्दह्यतेऽकीर्तिवह्निना ॥१७॥ ततच्छनशास्त्राणां वध्यं नावणभाषितम् । देव्यामस्मदगृहस्थायां सत्यामपि सुचेतसि ॥१८॥ पश्याम्भोजवनानन्दकारिणस्तिग्मतेजसः । अस्तं यातस्य को रात्रौ सत्यामस्ति निवर्त्तकः ॥१६॥ अपवादरजोभिर्मे महाविस्तारगामिभिः । छायायाः क्रियते हानं मा भूदेतदवारणम् ॥२०॥ शशाङ्कविमलं गोत्रमकीर्तिधनलेखया। मारुधप्राप्य मां भ्रातरित्यहं यत्नतत्परः ॥२१॥ शुष्कन्धनमहाकूटे सलिलाप्लाववर्जितः । मावद्धिष्ट यथा वह्निरयशो भुवने कृतम् ॥२२।। कुलं महाहमेतन्मे प्रकाशममलोज्वलम् । यावत्कलक्यते नारं तावदौपायिकं कुरु ॥२३॥ अपि त्यजामि वैदेही निर्दोषां शीलशालिनीम् । प्रमादयामि नो कीति लोकसौख्यहतात्मकः ॥२४॥ ततो जगाद सौमित्रिर्धातृस्नेहपरायणः । राजन्न खलु वैदेयां विधातुं शोकमर्हसि ॥२५॥ लोकापवादमात्रेण कथं त्यजसि जानकीम् । स्थितां सर्वसतीमूनि सर्वाकारमनिन्दिताम् ॥२६॥ भसत्त्वं वक्तु दुर्लोकः प्राणिनां शीलधारिणाम् । न हि तद्वचनात्तेषां परमार्थत्वमश्नुते ॥२७॥ गृह्यमाणोऽतिकृष्णोऽपि विषदृषितलोचनः । सितत्वं परमार्थेन न विमुञ्चति चन्द्रमाः ॥२८॥ आत्मा शोलसमृद्धस्य जन्तोर्बजति साक्षिताम् । परमार्थाय पर्याप्तं वस्तुतत्त्वं न बाह्यतः ॥२६॥
लोक निरन्तर सुशोभित हैं ॥१४॥ निष्प्रयोजन प्राणोंको धारण करता हुआ मैं, पापी एवं भङ्गुर स्नेहके लिए उस कुलको मलिन कैसे कर दूं? ॥१५॥ अल्प भी अकीर्ति उपेक्षा करने पर वृद्धिको प्राप्त हो जाती है और थोड़ी भी कीर्ति इन्द्रोंके द्वारा भी प्रयोगमें लाई जाती है-गाई जाती है॥१६|| जब कि अकीर्ति रूपी अग्निके द्वारा हरा-भरा कीर्तिरूपी उद्यान जल रहा है तब इन नश्वर विशाल भोगोंसे क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है ? ॥१७॥ मैं जानता हूँ कि देवी सीता, सती और शुद्ध हृदयवाली नारी है पर जब तक वह हमारे घरमें स्थित रहती है तब तक यह अवर्णवाद शस्त्र और शास्त्रोंके द्वारा दूर नहीं किया जा सकता ॥१८।। देखो, कमल वनको आनन्दित करनेवाला सूर्य रात्रि होते ही अस्त हो जाता है सो उसे रोकनेवाला कौन है ? ॥१६।। महाविस्तारको प्राप्त होनेवाली अपवाद रूपी रजसे मेरी कान्तिका ह्रास किया जा रहा है सो यह अनिवारित न रहे-इसकी रुकावट होना चाहिए ।।२०।। हे भाई ! चन्द्रमाके समान निर्मल कुल मुझे पाकर अकीर्ति रूपी मेघकी रेखासे आवृत न हो जाय इसीलिए मैं यत्न कर रहा हूँ ॥२१।। जिस प्रकार सूखे ईन्धनके समूहमें जलके प्रवाहसे रहित अग्नि बढ़ती जाती है उस प्रकार उत्पन्न हुआ यह अपयश संसारमें बढ़ता न रहे ॥२२॥ मेरा यह महायोग्य, प्रकाशमान, अत्यन्त निर्मल एवं उज्ज्वल कुल जबतक कलङ्कित नहीं होता है तब तक शीघ्र ही इसका उपाय करो ।।२३।। जो जनताके सुखके लिए अपने आपको अर्पित कर सकता है ऐसा मैं निर्दोष एवं शीलसे सुशोभित सीताको छोड़ सकता हूँ परन्तु कीर्तिको नष्ट नहीं होने दूंगा ॥२४॥
तदनन्तर भाईके स्नेहमें तत्पर लक्ष्मणने कहा कि हे राजन् ! सीताके विषयमें शोक नहीं करना चाहिए ॥२५॥ समस्त सतियोंके मस्तक पर स्थित एवं सर्व प्रकारसे अनिन्दित सीताको आप मात्र लोकापवादके भयसे क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥२६॥ दुष्ट मनुष्य शीलवान मनुष्योंकी बुराई कहे पर उनके कहनेसे उनकी परमाथता नष्ट नहीं हो जाती ॥२७|| जिनके नेत्र विषसे दूषित हो रहे हैं ऐसे मनुष्य यद्यपि चन्द्रमाको अत्यन्त काला देखने हैं पर यथार्थमें चन्द्रमा शुक्लता नहीं छोड़ देता है ।।२८।। शीलसम्पन्न प्राणीकी आत्मा साक्षिताको प्राप्त होती है अर्थात् वह स्वयं ही
१. यानस्य म०। २. भूदातपवारणम् म०। ३. वक्ति म०।. वस्तुत्वं म०।
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