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पद्मपुराणे
यदर्थमब्धिमुत्तीय रिपुध्वंसि रणं कृतम् । करोति कलुषं सा मे जानकी कुलदपणम् ॥५॥ युक्तं जनपदो वक्ति दुष्टपुंसि परालये । अवस्थिता कथं सीता लोकनिन्धा मयाहृता ॥५॥ अपश्यन् नगमानं यां भवामि विरहाकुलः । अनुरक्तां त्यजाम्येतां दयितामधुना कथम् ॥५६॥ चक्षुर्मानसयोर्वासं कृत्वा याऽवस्थिता मम । गुणधानीमदोषां तां कथं मुञ्चामि जानकीम् ॥६॥ अथवा वेसि नारीणां चेतसः को विचेष्टितम् । दोषाणां प्रभवो यासु साक्षाद्वसति मन्मथः ॥६॥ धिकस्त्रियं सर्वदोषाणामाकरं तापकारणम् । विशुद्धकुलजातानां पुंसां पई सुदुस्त्यजम् ॥६२॥ अभिहन्त्री समस्तानां बलानां रागसंश्रयाम् । स्मृतीनां परमं भ्रंशं सत्यस्खलनखातिकाम् ।।६३॥ विघ्नं निर्वाणसौख्यस्य ज्ञानप्रभवसूदनीम् । भस्मच्छन्नाग्निसङ्काशांदर्भसूचीसमानिकाम् ॥६॥ दृङ्मावरमणीयां तां निर्मुक्तमिव पन्नगः । तस्मात्यजामि वैदेही महादुःखजिहासया ॥६५॥ अशून्यं सर्वदा तीव्रस्नेहबन्धवशीकृतम् । यया मे हृदयं मुख्यां विरहामि कथं तकाम् ॥६६॥ यद्यप्यहं स्थिरस्वान्तस्तथाप्यासन्नवर्तिनी। अर्चिन्मम वैदेही मनोविलयनक्षमा ॥६७॥ मन्ये दूरस्थिताऽप्येषा चन्द्ररेखा कुमुदतीम् । यथा चालयितुं शक्ता धृति मम मनोहरा ॥६॥ इतो जनपरीवादश्वेतः स्नेहः सुदुस्त्यजः । अहोऽस्मि भयरागाभ्यां प्रक्षिप्तो गहनान्तरे ॥६६॥ श्रेष्ठा सर्वप्रकारेण दिवौकोयोषितामपि । कथं त्यजामि तां साध्वी प्रीत्या यातामिकताम् ॥७॥ एतां यदि न मुञ्चामि साक्षाद्दुःकीर्तिमुद्गताम् । कृपणो मत्लमो मह्यां तदैतस्यां न विद्यते ॥१॥
कर रही है॥५६॥ जिसके लिए मैंने समद उतर कर शत्रओंका संहार करनेवाला यद्ध किया था वही जानकी मेरे कुलरूपी दर्पणको मलिन कर रही है ॥५७।। देशके लोग ठीक ही तो कहते हैं कि जिस घरका पुरुष दुष्ट है, ऐसे पराये घरमें स्थित लोक निन्द्य सीताको मैं क्यों ले आया ? ॥५८|| जिसे मैं क्षणमात्र भी नहीं देखता तो विरहाकुल हो जाता हूँ इस अनुरागसे भरी प्रिय दयिताको इस सयय कैसे छोड़ दूँ ? ॥५६॥ जो मेरे चक्षु और मनमें निवास कर अवस्थित है उस गुणोंकी भाण्डार एवं निर्दोष सीताका परित्याग कैसे कर दूँ ? ॥६०।। अथवा उन खियोंके चित्तकी चेष्टा को कौन जानता है जिनमें दोषोंका कारण काम साक्षात् निवास करता है ॥६१॥ जो समस्त दोषोंकी खान है। संतापका कारण है तथा निर्मलकुलमें उत्पन्न हुए मनुष्यों के लिए कठिनाईसे छोड़ने योग्य पङ्क स्वरूप है उस स्त्रीके लिए धिक्कार है ॥६२॥ यह स्त्री समस्त बलोंको नष्ट करने वाली है, रागका आश्रय है, स्मृतियोंके नाशका परम कारण है, सत्यव्रतके स्खलित होनेके लिए खाई रूप है, मोक्ष सुखके लिए विघ्न स्वरूप है, ज्ञानकी उत्पत्तिको नष्ट करने वाली है, भस्मसे आच्छादित अग्निके समान है, डाभकी अनीके तुल्य है अथवा देखने मात्रमें रमणीय है । इसलिए जिस प्रकार साँप काँचुलीको छोड़ देता है उसी प्रकार मैं महादुःखको छोड़नेकी इच्छासे सीताको छोड़ता हूँ॥६३-६॥ उत्कट स्नेह रूपी बन्धनसे वशीभत हआ मेरा हृदय सदा जिससे अशून्य रहता है उस मुख्य सोताको कैसे छोड़ दूँ ? ॥६६।। यद्यपि मैं दृढ चित्त हूँ तथापि समीप में रहने वाली सीता ज्वालाके समान मेरे मनको विलीन करने में समर्थ है ॥६७॥ मैं मानता हूँ कि जिस प्रकार चन्द्रमाकी रेखा दूरवर्तिनी होकर भी कुमुदिनीको विचलित करनेमें समर्थ है उसी प्रकार यह सुन्दरी सीता भी मेरे धैर्यको बिचलित करने में समर्थ है ।।६८। इस ओर लोकनिन्दा है और दूसरी ओर कठिनाईसे छूटने योग्य स्नेह है । अहो ! मुझे भय और रागने सघन वनके बोचमें ला पटका है ॥६६॥ जो देवाङ्गनाओंमें भी सब प्रकारसे श्रेष्ठ है तथा जो प्रीतिके कारण मानो एकताको प्राप्त है उस साध्वी सीताको कैसे छोड़ दूँ ॥७०॥ अथवा उठी हुई साक्षात् अपकीर्ति के समान इसे यदि नहीं छोड़ता हूँ तो पृथिवी पर इसके विषयमें मेरे समान दूसरा
१. मुष्यं म०, मुख्यं ज० । २. आहोऽस्मि म० । ३. देवाङ्गनानामपि ।
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