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षण्णवतितमं पर्व
अन्यास्तत्र जगुर्देव्यो देव्यत्र जनितेन किम् । 'वितर्केण विशालेन शान्तिकर्म विधीयताम् ॥ १४ ॥ अभिषेकैर्जिनेन्द्राणामत्युदारैश्च पूजनैः । दानैरिच्छाभिपूरैश्च क्रियतामशुभेरणम् ॥१५॥ एवमुक्ता जगौ सीता देव्यः साधु समीरितम् । दानं पूजाऽभिषेकश्च तपश्चाशुभसूदनम् ॥१६॥ विघ्नानां नाशनं दानं रिपूणां वैरनाशनम् । पुण्यस्य समुपादानं महतो यशसस्तथा ॥१७॥ इत्युक्त्वा भद्रकलशं समाह्लाय जगाविति । किमिच्छदानमासूतेर्दीयतां प्रतिवासरम् ॥ १८ ॥ यथाज्ञापयसीत्युक्त्वा द्रविणाधिकृतो ययौ । इयमप्यादरे तस्थौ जिनपूजा दिगोचरे ॥ १६ ॥ ततो जिनेन्द्र गेहेषु तूर्यशब्दाः समुद्ययुः । शङ्खकोटिरवोन्मिश्राः प्रावधनरवोपमाः ॥२०॥ जिनेन्द्र चरितन्यस्त चित्रपट्टाः प्रसारिताः । पयोघृतादिसम्पूर्णाः कलशाः समुपाहृताः ॥२१॥ भूषिताङ्ग द्विपारूढः की सितवस्त्रभृत् । कः केनार्थीत्ययोध्यायां घोषणामददात् स्वयम् ॥२२॥ एवं सुविधिना दानं महोत्साहमदीयत । विविधं नियमं देवी निजशक्त्या चकार च ॥२३॥ प्रावर्त्यन्त महापूजा अभिषेकाः सुसम्पदः । पापवस्तुनिवृत्तात्मा बभूव समधीर्जनः ॥२४॥ इतिक्रियाप्रसक्तायां सीतायां शान्तचेतसि । आस्थानमण्डपे तस्थौ दर्शने शक्रवद्बलः ॥ २५॥ प्रतीहारविनिर्मुक्तद्वाराः सम्भ्रान्तचेतसः । ततो जनपदाः सैंहं धामेवास्थानमाश्रिताः ॥२६॥ रत्नकाञ्चननिर्माणामदृष्टां जातुचित् पुनः । सभामालोक्य गम्भीरां प्रजानां चलितं मनः ॥२७॥
उस पदार्थको नहीं देखता जो हे सुचेष्टिते ! तुम्हारे दुःखका कारणपना प्राप्त कर सके ||१३|| उक्त दोके सिवाय जो वहाँ अन्य देवियाँ थीं उन्होंने कहा कि हे देवि ! इस विषय में अत्यधिक तर्कवितर्क करने से क्या लाभ है ? शान्तिकर्म करना चाहिए || १४ || जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक, अत्युदार पूजन और किमिच्छक दानके द्वारा अशुभ कर्मको दूर हटाना चाहिए || १५ || इस प्रकार कहने पर सीताने कहा कि हे देवियो ! आप लोगोंने ठीक कहा है क्योंकि दान, पूजा, अभिषेक और तप अशुभ कर्मोंको नष्ट करनेवाला है || १६ || दान विघ्नोंका नाश करनेवाला है, शत्रुओंका वैर दूर करनेवाला है, पुण्यका उपादान है तथा बहुत भारी यशका कारण है ||१७|| इतना कहकर सीताने भद्रकलश नामक कोषाध्यक्षको बुलाकर कहा कि प्रसूति पर्यन्त प्रतिदिन किमिच्छक दान दिया जावे ॥ १८ ॥ 'जैसी आज्ञा हो' यह कहकर उधर कोषाध्यक्ष चला गया और इधर यह सीता भी जिनपूजा आदि सम्बन्धी आदर में निमग्न हो गई ॥१६॥
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तदनन्तर जिन मन्दिरोंमें करोड़ों शङ्खों के शब्द में मिश्रित, एवं वर्षाकालिक मेघ गर्जनाकी उपमा धारण करनेवाले तुरही आदि वादित्रोंके शब्द उठने लगे ||२०|| जिनेन्द्र भगवान् के चरित्रसे सम्बन्ध रखनेवाले चित्रपट फैलाये गये और दूध, घृत आदिसे भरे हुए कलश बुलाये गये ॥ २१॥ आभूषणोंसे आभूषित तथा श्वेत वस्त्रको धारण करनेवाले कञ्चुकीने हाथी पर सवार हो अयोध्या में स्वयं यह घोषणा दी कि कौन किस पदार्थकी इच्छा रखता है ? ||२२|| इस प्रकार विधि पूर्वक बड़े उत्साहसे दान दिया जाने लगा और देवी सीताने अपनी शक्तिके अनुसार नाना प्रकार के नियम ग्रहण किये ||२३|| उत्तम वैभवके अनुरूप महापूजाएँ और अभिषेक किये गये तथा मनुष्य पापपूर्ण वस्तुसे निवृत्त हो शान्तचित्त हो गये ॥ २४ ॥ इस प्रकार जब शान्त चित्तकी धारक सीता दान आदि क्रियाओंमें आसक्त थी तब रामचन्द्र इन्द्रके समान सभामण्डपमें आसीन थे ||२५||
तदनन्तर द्वारपालोंने जिन्हें द्वार छोड़ दिये थे तथा जिनके चित्त व्यग्र थे ऐसे देशवासी लोग सभा मण्डपमें उस तरह डरते-डरते पहुँचे जिस तरह कि मानो सिंहके स्थान पर ही जा रहे हों ||२६|| रत्न और सुवर्णसे जिसकी रचना हुई थी तथा जो पहले कभी देखने में नहीं आई
१. वितर्कण विशालेन म० । २. ऋषिताङ्गो म० । ३. रामः ।
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