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नवतितम पर्व
मद्यामिपनिवृत्तस्य तावद्धस्तशतान्तरम् । लङ्घयन्ति न दुःसत्त्वा यावत् सालोऽस्य॑ नयमः॥१३॥ कालाग्निर्नाम रुद्राणां दारुणो न श्रुतस्त्वया । सक्तो दयितया साकं निर्विद्यो निधने गतः ॥१४॥ व्रज वा किं तवैतेन कुरु कृत्यं मनीषितम् । ज्ञास्थामि स्वयमेवाहं कर्तव्यं मित्रविद्विषः ॥१५॥ इत्युक्त्वा खं व्यतिक्रम्य मथुरायां सुदुर्मनाः । ऐक्षतोत्सवमत्यन्तं महान्तं सर्वलोकगम् ॥१६॥ अचिन्तयञ्च लोकोऽयमकृतज्ञो महाखलः । स्थाने राष्ट्रे च यद्देन्यस्थाने तोषमितः परम् ॥१७॥ बाहुच्छायां समाश्रित्य सुचिरं सुरसौख्यवान् । स्थितो यः स कथं लोको मधोमुत्योन दुःखितः ॥१८॥ प्रवीरः कातरैः शूरसहस्रेण च पण्डितः । सेव्यः किञ्चिगजेन्मूर्खमकृतज्ञं परित्यजेत् ॥१६॥ आस्तां तावदसौ राजा स्निग्धो मे येन सूदितः। संस्थानं राष्ट्रमेवेतत्क्षयं तावन्नयाम्यहम् ॥२०॥ इति ध्यात्वा महारौद्रः क्रोधसम्भारचोदितः । उपसर्ग समारेभे कर्त लोकस्य दुःसहम् ॥२१॥ विकृत्य सुमहारोगांल्लोकं दग्धुं समुद्यतः । क्षयदाव इबोदारं कक्ष्यं कारुण्यवर्जितः ॥२२॥ यत्रैव यः स्थितः स्थाने निविष्टः शयितोऽपि वा । अचलस्तत्र तत्रैव दीर्घनिद्रामसावितः ॥२३॥ उपसर्ग समालोक्य कुलदैवतचोदितः । अयोध्यानगरी यातः शत्रुघ्नः साधनान्वितः ॥२४॥ तमुपात्तजयं शूरं प्रत्यायातं महाहवात् । समभ्यनन्दयन् हृष्टा बलचक्रधरादयः ॥२५॥ पूर्णाशा सुप्रजाश्चासौ विधाय जिन पूजनम् । धार्मिकेभ्यो महादानं दुःखितेभ्यस्तथाऽददात् ॥२६॥
आर्यावृत्तम् यद्यपि महाभिरामा साकेता काञ्चनोज्ज्वलः प्रासादैः।
धेनुरिव सर्वकामप्रदानचतुरा त्रिविष्टपोपभोगा ॥२७॥ रुद्रका नाम क्या तुमने नहीं सुना जो आसक्त होनेके कारण विद्या रहिन हो स्त्रीके साथ ही साथ मृत्युको प्राप्त हुआ था ॥१४॥ अथवा जाओ, तुझे इससे क्या प्रयोजन ? इच्छानुसार काम करो, मैं स्वयं ही मित्र और शत्रुका कर्तव्य ज्ञात करूँगा ॥१५॥
___ इतना कहकर अत्यन्त दुष्ट चित्तको धारण करनेवाला वह चमरेन्द्र आकाशको लाँघकर मथुरा पहुँचा और वहाँ पहुँच कर उसने समस्त लोगोंमें व्याप्त बहुत भारी उत्सव देखा ॥१६॥ वह विचार करने लगा कि ये मथुराके लोग अकृतज्ञ तथा महादुष्ट हैं जो घर अथवा देशमें दुःखका अवसर होने पर भी परम संतोषको प्राप्त हो रहे हैं अर्थात् खेदके समय हर्ष मना रहे हैं ॥१७॥ जिसकी भुजाओंकी छाया प्राप्त कर जो चिरकाल तक देवों जैसा सुख भोगते रहे वे अब उस मधुकी मृत्युसे दुःखी क्यों नहीं हो रहे हैं ? ॥१८॥ शूर-वीर मनुष्य कायर मनुष्योंके द्वारा सेवनीय है और पण्डित-जन हजारों शूर-वीरोंके द्वारा सेव्य है सो कदाचित् मूर्खकी तो सेवा को जा सकती है पर अकृतज्ञ मनुष्यको छोड़ देना चाहिए ।।१६।। अथवा यह सब रहें, जिसने हमारे स्नेही राजाको मारा है मैं उसके निवास स्वरूप इस समस्त देशको पूर्ण रूपसे क्षय प्राप्त कराता हूँ ॥२०॥ इस प्रकार विचारकर महारौद्र परिणामोंके धारक चमरेन्द्रने क्रोधके भारसे प्रेरित हो लोगोंपर दुःसह उपसर्ग करना प्रारम्भ किया ॥२१।। जिस प्रकार प्रलयकालका दावानल विशाल वनको जलानेके लिए उद्यत होता है उसी प्रकार वह निदद्य चरमेन्द्र अनेक महारोग फैलाकर लोगोंको जलाने के लिए उद्यत हुआ ।२२॥ जो मनुष्य जिस स्थानपर खड़ा था, बैठा था अथवा सो रहा था वह वहीं अचल हो दीर्घ निद्रा-मृत्युको प्राप्त हो गया ॥२३॥ उपसर्ग देखकर कुलदेवतासे प्रेरित हुआ शत्रुघ्न अपनी सेनाके साथ अयोध्या चला गया ।।२४॥ विजय प्राप्त कर महायुद्धसे लौटे हुए शूरवीर शत्रुघ्नका राम, लक्ष्मण आदिने हर्षित हो अभिनन्दन किया ॥२४॥ जिसकी आशा पूर्ण हो गई थी ऐसी शत्रुघ्नकी माता सुप्रजाने जिनपूजा कर धर्मात्माओं तथा दीन-दुःखी मनुष्यों के लिए दान दिया ।।२६।। यद्यपि अयोध्या नगरी सुवर्णमयो महलोंसे अत्यन्त
१. असौ+ इतः इतिच्छेदः ।
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