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पद्मपुराणे
कलपुंस्कोकिलालापैर्जपभित्र निजोचितम् । विभ्रन्नरपतेर्लीलां लोकाकुलत्वकारिणीम् ॥ १४ ॥ अङ्कोटनखरो विश्रारखकास्मिकाम् । लोहिताशोकनयनश्चलत्पल्लवजिह्नकः ॥१५॥ वसन्तकेसरी प्राप्तो विदेशजनमानसम् । नयमानः परं श्रासं सिंहकेसर केसरः ॥ १६ ॥ रमणीयं स्वभावेन वसन्तेन विशेषतः । महेन्द्रोदयमुद्यानं जातं नन्दनसुन्दरम् ॥१७॥ विचित्रकुसुमा वृक्षा विचित्रचलपल्लवा । मत्ता इव विघूर्णन्ते दक्षिणानिलसङ्गताः ॥ १८ ॥ पद्मोत्पलादिसन्छन्नाः शकुन्तगणनादिताः । वाप्यो वरं विराजन्ते जनसेवितरोधसः ॥१६॥ हंससारसचक्राकुरराणां मनोहराः । स्वनाः कारण्डवानां च प्रवृत्ता रागिदुःसहाः ॥२०॥ निपातोत्पतनैस्तेषां विमलं लुलितं जलम् । प्रमोदादिव संवृत्तं तरङ्गाढ्यं समाकुलम् ॥२१॥ पद्मादिभिर्जलं व्याप्तं स्थलं कुरबकादिभिः । गगनं रजसा तेषां वसन्ते जृम्भिते सति ॥ २२ ॥ गुच्छगुल्मलतावृक्षाः प्रकारा बहुधा स्थिताः । वनस्पतेः परां शोभामुपजग्मुः समन्ततः ॥२३॥ काले तस्मिन्नरेन्द्रस्य जनकस्य शरीरजाम् । किञ्चिद् गर्भकृतश्रान्तिकृशीभूतशरीरिकाम् ॥२४॥ वीय पृच्छति पद्माभः किं ते कान्ते मनोहरम् । सम्पादयाम्यहं ब्रूहि दोहकं किमसीदृशी ॥ २५ ॥ ततः संस्मित्य वैदेही जगाद कमलानना । नाथ चैत्यालयान्द्रष्टुं भूरीन् वाञ्छामि भूतले ॥२६॥ त्रैलोक्य मङ्गलात्मभ्यः पञ्चवर्णेभ्य आदरात् । जिनेन्द्रप्रतिबिम्बेभ्यो नमस्कर्तुं ममाशयः ॥२७॥ हेमरत्नमयैः पुष्पैः पूजयामि जिनानिति । इयं मे महती श्रद्धा किमन्यदभिवान् यते ॥ २८ ॥
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योग्य वार्तालाप ही कर रहा था ऐसा लोकमें आकुलता उत्पन्न करने वाली राजाकी शोभाको धारण करता हुआ वसन्तकाल आ पहुँचा ॥११- १४॥ अङ्कोट पुष्प ही जिसके नाखून थे, जो कुरवक रूपी दाढको धारण कर रहा था, लाल लाल अशोक ही जिसके नेत्र थे, चञ्चल किसलय ही जिसकी जिह्वा थी, जो परदेशी मनुष्य के मनको परम भय प्राप्त करा रहा था और बकुल पुष्प ही जिसकी गरदनके बाल थे ऐसा वसन्तरूपी सिंह आ पहुँचा || १५-१६ ।। अयोध्याका महेन्द्रोदय उद्यान स्वभावसे ही सुन्दर था परन्तु उस समय वसन्तके कारण विशेष रूपसे नन्दनवनके समान सुन्दर हो गया था ॥ १७ ॥ जिनमें रङ्ग-विरङ्गे फूल फूल रहे थे तथा जिनके नाना प्रकारके पल्लव हिल रहे थे, ऐसे वृक्ष दक्षिणके मलय समोरसे मिलकर मानो पागलकी तरह मूम रहे थे || १८ || जो कमल तथा नील कमल आदिसे आच्छादित थीं, पक्षियों के समूह जहाँ शब्द कर रहे थे, और जिनके तट मनुष्योंसे सेवित थे ऐसी वापिकाएँ अत्यधिक सुशोभित हो रही थीं ॥ १६ ॥ रागी मनुष्योंके लिए जिनका सहना कठिन था ऐसे हंस, सारस, चकवा, कुरर और कारण्डव पक्षियोंके मनोहर शब्द होने लगे ||२०|| उन पक्षियोंके उत्पतन और विपतन से क्षोभको प्राप्त हुआ निर्मल जल हर्षसे ही मानो तरङ्ग युक्त होता हुआ व्याकुल हो रहा था || २१ | वसन्तका विस्तार होनेपर जल, कमल आदिसे, स्थल कुरवक आदिसे और आकाश उनकी परागसे व्याप्त हो गया था ||२२|| उस समय गुच्छे, गुल्म, लता तथा वृक्ष आदि जो वनस्पतिकी जातियाँ अनेक प्रकार से स्थित सब ओरसे परम शोभाको प्राप्त हो रही थीं ||२३|| उस समय गर्भके द्वारा की हुई थकावट से जिसका शरीर कुछ-कुछ भ्रान्त हो रहा था ऐसी जनकनन्दिनीको देखकर रामने पूछा कि हे कान्ते ! तुझे क्या अच्छा लगता है ? सो कह । मैं अभी तेरी इच्छा पूर्ण करता हूँ तू ऐसी क्यों हो रही है ? ॥ २४-२५ ॥ तब कमलमुखी सीताने मुसकरा कर कहा कि हे नाथ ! मैं पृथिवीतल पर स्थित अनेक चैत्यालयों के दर्शन करना चाहती | ॥ २६ ॥ जिनका स्वरूप तीनों लोकोंके लिए मङ्गल रूप है ऐसी पञ्चवर्णकी जिन - प्रतिमाओं को आदर पूर्वक नमस्कार करनेका मेरा भाव है ||२७|| सुवर्ण तथा रत्नमयी पुष्पों से जिनेन्द्र भगबान्की पूजा करूँ यह मेरी बड़ी श्रद्धा है। इसके सिवाय और क्या इच्छा करूँ ? ||२८|| १. विवश म० । २. नीयमानः म० । ३. सभोत्पलादि म० । ४. पृच्छसि म० ।
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