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पद्मपुराणे
अहहत्ताय याताय जिनालयमिहान्तरे । द्यतिना गदितं दृष्टाः साधवः स्युस्त्वयोत्तमाः ॥२८॥ वन्दिताः पूजिता वा स्युर्महासत्वा महौजसः । मथुराकृतसंवासा 'मयाऽमी कृतसंकथाः ॥२६॥ महातपोधना दृष्टास्तेऽस्माभिः शुभचेष्टिताः । मुनयः परमोदारा वन्द्या गगनगामिनः ॥३०॥ ततः प्रभावमाकर्ण्य साधूनां श्रावकाधिपः । तदा विषण्णहृदयः पश्चात्तापेन तप्यते ॥३१॥ धिक सोऽहमगृहीतार्थः सम्यग्दर्शनवर्जितः । अयुक्तोऽप्रसदाचारो न तुल्यो मेऽस्त्यधार्मिकः ॥३२॥ मिथ्याष्टिः कुतोऽस्न्यन्यो मत्तः प्रत्यपरोऽधुनो । अभ्युत्थायार्चिता नत्वा साधवो यन्न तर्पिताः ॥३३॥ साधुरूपं समालोक्य न मुञ्चत्यासनं तु यः । दृष्ट्राऽपमन्यते यश्च स मिथ्याष्टिरुच्यते ॥३॥ पापोऽहं पापकर्मा च पापात्मा पापभाजनम् । यो वा निन्द्यतमः कश्चिजिनवाक्य बहिःकृतः ॥३५॥ शरीरे मर्मसंघाते तावन्मे दह्यते मनः । यावदञ्जलिमुद्धय साधवस्ते न वन्दिताः ॥३६।। अहंकारसमुत्थस्य पापस्यास्य न विद्यते । प्रायश्चित्तं परं तेषां मुनीनां वन्दनादृते ॥३७॥ अथ ज्ञात्वा समासन्ना' कार्तिकों परमोत्सुकः । अर्हच्छ्रेष्ठी महादृष्टिनृपतुल्यपरिच्छदः ॥३८॥ नितिमुनिमाहात्म्यः स्वनिन्दाकरणोद्यतः । सप्तर्षिपूजनं कर्तुं प्रस्थितो बन्धुभिः समम् ॥३॥ रथकुञ्जरपादाततुरङ्गौघसमन्वितः । पूजां योगेश्वरी कर्तुमसौ याति स्म सत्वरम् ॥४०॥ समृद्धया परया युक्तः शुभध्यानपरायणः । कार्तिकामलसप्तम्यां प्राप्तः साप्तमुन पदम् ॥४१॥
निन्दा गर्दा आदि करते हुए निर्मल हृदयको प्राप्त हुए अर्थात् जो मुनि पहले उन्हें उन्मार्गगामी समझकर उनकी निन्दाका विचार कर रहे थे वे ही मुनि अब उन्हें चारण ऋद्धके धारक जान कर अपने अज्ञानकी निन्दा करने लगे तथा अपने चित्तकी कलुपताको उन्होंने दूर कर दिया ।।२७। इसी बीचमें अर्हद्दत्त सेठ जिन-मन्दिरमें आया सो द्युतिभट्टारकने उससे कहा कि आज तुमने उत्तम मुनि देखे होंगे ? ॥२८।। वे मुनि सबके द्वारा वन्दित हैं, पूजित हैं, महाधैर्यशाली हैं, एवं महाप्रतापी हैं। वे मथुगके निवासी हैं और उन्होंने मेरे साथ वार्तालाप किया है ॥२६।। महातपश्चरण ही जिनका धन है, जो शुभ चेष्टाओंके धारक हैं, अत्यन्त उदार हैं, वन्दनीय हैं और आकाशमें गमन करनेवाले हैं ऐसे उन मनियोंके आज हमने दर्शन किये हैं।॥३०॥ तदनन्तर द्युतिभट्टारकसे साधुआंका प्रभाव सुनकर अर्हद्दत्त सेठ बहुत ही खिन्न चित्त हो पश्चात्तापसे संतप्त हो गया ॥३१।। वह विचार करने लगा कि यथार्थ अर्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्या दृष्टिको धिक्कार हो । मेरा अनिष्ट आचरण अयुक्त था, अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक नहीं है ।।३२।। इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्याइष्टि कौन होगा जिसने उठ कर मुनियोंकी पूजा नहीं की तथा नमस्कार कर उन्हें आहारसे सन्तुष्ट नहीं किया ॥३३॥ जो मुनिको देखकर आसन नहीं छोड़ता है तथा देख कर उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है॥३४।। मैं पापी हूँ, पापकर्मा हूँ, पापात्मा हूँ, पापका पात्र हैं अथवा जिनागमकी श्रद्धासे दर रहनेवाला जो कोई निन्द्यतम है वह मैं हूँ ।।३५।। जव तक मैं हाथ जोड़कर उन मुनियोंकी वन्दना नहीं कर लेता तब तक शरीर एवं मर्मस्थल में मेरा मन दाहको प्राप्त होता रहेगा ॥३६।। अहंकारसे उत्पन्न हुए इस पापका प्रायश्चित्त उन मुनियोंकी वन्दनाके सिवाय और कुछ नहीं हो सकता॥३७॥
अथानन्तर कार्तिकी पूर्णिमाको निकटवर्ती जानकर जिसकी उत्सुकता बढ़ रही थी, जो महासम्यग्दृष्टि था, राजाके समान वैभवका धारक था, मुनियोंके माहात्म्यको अच्छी तरह जानता था, तथा अपनी निन्दा करने में तत्पर था ऐसा अहेदत्त सेठ सप्तर्षियों की पूजा करने अपने बन्धुजनोंके साथ मथुराकी ओर चला ॥३८-३६॥ रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सैनिकों के समूहके साथ वह सप्तर्षियोंकी पूजा करनेके लिए बड़ी शीघ्रतासे जा रहा था ॥४०॥ परम समृद्धिसे युक्त एवं शुभध्यान करनेमें तत्पर रहनेवाला वह सेठ कार्तिक शुक्ला सप्तमीके दिन सप्तर्षियों के
___१. मया सार्धम् । २. चित्वा नत्वा म० । ३. समासन्न म० । ४. सातमुनिम् म० | Jain Education International
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