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त्रिनवतितमं पर्व
अप्सरःसंहतिर्योग्य नभोदेशव्यवस्थिता । मुमोचाद्भुतयुक्तेषु स्थानेषु कुसुमाञ्जलीः ॥३०॥ ततः परबलाम्भोधौ सौमित्रिर्वडवानलः । विजृम्भितुं समायुक्तो योधयादः परिक्षयः ॥ ३.१ || || रथा वरतुरङ्गाश्च नागाश्च मदतोयदाः । तृणवत्तस्य वेगेन दिशो दश समाश्रिताः ॥ ३२ ॥ युद्धक्रीडां कचिच्चक्रे शक्रशक्तिर्हलायुधः । किष्किन्धपार्थिवोऽन्यत्र परमः कपिलक्ष्मण ॥३३॥ अपरत्र प्रभाजालपरवीरो महाजवः । लाङ्गूलपाणिरुग्रात्मा विविधाद्भुतचेष्टितः ॥ ३४ ॥ एवमेतैर्महायोधैर्विजयार्द्धबलं महत् । शरत्प्रभातमेघाभं क्वापि ' नीतं महत्समैः ॥३५॥ ततोऽधिपतिना साकं विजयाद्विभुवो नृपाः । स्वस्थानाभिमुखा नेशुः प्रचोणप्रधनेप्सिताः ॥ ३६ ॥ दृष्ट्वा पलायमानांस्तान् वीरान् रत्नरथात्मजान् । परमामर्ष सम्पूर्णानारदः कलहप्रियः ॥ ३७॥ कृत्वा कलकलं व्योम्नि कृततालमहास्वनः । जगाद विस्फुरद्रात्रः स्मितास्यो विकचेक्षणः ||३८|| एते ते चपलाः क्रुद्धा दुश्चेष्टा मन्दबुद्धयः । पलायन्ते न संसोढा यैर्लचमणगुणो क्षतिः ||३६|| दुर्विनीतान् प्रसह्यैतान्नरं गृह्णीत मानवाः । पराभवं तदा कृत्वा क्वाधुना मे पलाय्यते ||४०|| इत्युक्ते पृष्ठतस्तेषामुपात्तजयकीर्तयः । प्रतापपरमा धीराः प्रस्थिता ग्रहणोद्यताः ॥४१॥ प्रत्यासन्नेषु तेष्वासीत्तदा रत्नपुरं पुरम् | भासन्नपार्श्वसंसक्तमहादाववनोपमम् ॥ ४२ ॥ तावत् सुकन्यका रत्नभूता तत्र मनोरमा । सखीभिरावृता दृष्टमात्रलोकमनोरमा ॥ ४३ ॥
आकाश में योग्य स्थानपर स्थित अप्सराओंका समूह आश्चर्य से युक्त स्थानोंपर पुष्पाञ्जलियाँ छोड़ रहे थे ||३०|| तत्पश्चात् जो योधा रूपी जलजन्तुओं का क्षय करनेवाला था ऐसा लक्ष्मणरूपी बड़वानलपर चक्ररूपी समुद्र के बीच अपना विस्तार करनेके लिए उद्यत हुआ ||३१|| रथ, उत्तमोत्तम घोड़े, तथा मद रूपी जलको बहाने वाले हाथी, उसके वेगसे तृणके समान दशों दिशाओं में भाग गये ॥३२॥ कहीं इन्द्रके समान शक्तिको धारण करनेवाले राम युद्ध-क्रीड़ा करते थे तो कहीं वानर रूप चिह्नसे उत्कृष्ट सुग्रीव युद्धकी क्रीड़ा कर रहे थे ||३३|| और किसी एक जगह प्रभाजालसे युक्त, महावेगशाली, उग्र हृदय एवं नाना प्रकारकी अद्भुत चेष्टाओंको करने वाला हनूमान् युद्धक्रीड़ाका अनुभव कर रहा था ॥ ३४ ॥ जिस प्रकार शरदऋतुके प्रातःकालीन मेघ वायुके द्वारा कहीं ले जाये जाते हैं - तितर-बितर कर दिये जाते हैं उसी प्रकार इन महायोद्धाओं द्वारा विजयार्ध पर्वतकी बड़ी भारी सेना कहीं ले जाई गई थी- पराजित कर इधरउधर खदेड़ दी गई थी ||३५|| तदनन्तर जिनके युद्धके मनोरथ नष्ट हो गये थे ऐसे विजयार्ध - पर्वतपरके राजा अपने अधिपति - स्वामीके साथ अपने-अपने स्थानोंकी ओर भाग गये || ३६ || तीव्र क्रोध से भरे, रत्नरथके उन वीर पुत्रोंको भागते हुए देख कर जिन्होंने आकाशमें ताली पीटने का बड़ा शब्द किया था, जिनका शरीर चञ्चल था, मुख हास्यसे युक्त था, तथा नेत्र खिल रहे थे ऐसे कलहप्रिय नारदने कल-कल शब्द कर कहा कि ॥। ३७-३८ ॥ अहो ! ये वे ही चपल, क्रोधी, दुष्ट चेष्टा धारक तथा मन्दबुद्धिसे युक्त रत्नरथ के पुत्र भागे जा रहे हैं जिन्होंने कि लक्ष्मणके गुणोंकी उन्नति सहन नहीं की थी ॥३६॥ अरे मानवो ! इन उद्दण्ड लोगोंको शीघ्र हो बलपूर्वक पकड़ो । उस समय मेरा अनादर कर अब कहाँ भागना हो रहा है ? ॥४०॥ इतना कहने पर जिन्होंने जीतका यश प्राप्त किया था तथा जो प्रतापसे श्रेष्ठ थे, ऐसे कितने ही धीर-वीर उन्हें पकड़ने के लिए उद्यत हो उनके पीछे दौड़े ॥ ४१ ॥ उस समय उन सबके निकटस्थ होनेपर रत्नपुर नगर उस वनके समान हो गया था जिसके कि समीप बहुत बड़ा दावानल लग रहा था || ४२ ॥
अथानन्तर उसी समय, जो दृष्टिमें आये थी, घबड़ाई हुई थी, घोड़ों के रथपर आरूढ़ थी,
१. भक्त्वा म० । २. गात्रस्मितास्यो म० । २४-३
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हुए मनुष्यमात्रके मनको आनन्दित करनेवाली तथा महाप्रेमके वशीभूत थी ऐसी रत्नस्वरूप
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