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त्रिनवतितमं पर्व
अथ रत्नपुर नाम विजयाद्धेऽस्ति दक्षिणम् । पुरं रत्नरथस्तत्र राजा विद्याधराधिपः ॥३॥ मनोरमेति तस्यास्ति दुहिता रूपशालिनी । पूर्ण चन्द्राननाऽभिख्यमहिषीकुक्षिसम्भवा ॥२॥ समीच्य यौवनं तस्या नवं राजा सुचेतनः । वरान्वेषणशेमुण्या बभूव परमाकुलः ॥३॥ मन्त्रिभिः सह सङ्गत्य स चक्रे सम्प्रचारगाम् । कस्मै योग्याय यच्छामः कुमारीमेतकामिति ॥४॥ एवं दिनेषु गच्छत्सु राज्ञि चिन्तावशीकृते । कदाचिन्नारदः प्राप्तस्ततः स मानमाप च ।।। तस्मै विदितनिःशेयलोकचेष्टितबुद्धये । राजा प्रस्तुतमाचख्यौ सुखासीनाय सादरः ।।६।। अवद्वारों जगौ राजन् विज्ञातो भवता न किम् । भ्राता युगप्रधानस्य पुंसो लाङ्गललक्ष्मणः ॥७॥ बिभ्रागः परमां लचमी लक्ष्मणश्चारुलक्षणः । चक्रानुभावविनतसमस्तप्रतिमानवः ॥८॥ तस्येयं सदृशी कन्या हृदयानन्ददायिनी । ज्योत्स्ना कुमुदखण्डस्य यथा परमसुन्दरी ।।६।। एवं प्रभाषमाणेऽस्मिन् रत्नस्यन्दनसूनवः । क्रुद्धा हरिमनोवातवेगाद्या मानशालिनः ॥१०॥ स्मृत्वा स्वजनघातोत्थं वैरं प्रत्यग्रमुन्नतम् । जगुः कालाग्निवदीप्ताः परिस्फुरितविग्रहाः ।।११।। अद्यैव व्यतिपल्याऽऽशु समाहृय दुरीहितः । अस्माभिर्यो विहन्तव्यस्तस्मै कन्या न दीयते ॥१२॥ इत्युक्त रजपुत्रभ्रविकारपरिचोदितैः । किङ्करौधैरवद्वारः पादाकर्षणमापितः ॥१३॥ नभस्तलं समुत्पत्य ततः सुरमुनिद्रुतम् । साकेतायां सुमित्राजमुपसृप्तो महादरः ॥१४॥ अस्य विस्तरतो वाता निवेद्य भुवनस्थिताम् । कन्यायाश्च विशेषेण व्यक्तकौतुकलक्षणः ।।५।।
अथानन्तर विजया पर्वतकी दक्षिण दिशामें रत्नपुर नामका नगर है। वहाँ विद्याधरोंका राजा रत्नरथ राज्य करता था ॥१॥ उसकी पूर्ण चन्द्रानना नामकी रानीके उदरसे उत्पन्न मनोरमा नामकी रूपवती पुत्री थी ।।२।। पुत्रीका नव-यौवन देख विचारवान् राजा वरके अन्वेषणकी बद्धिसे परम आकल हआ ॥३॥ यह कन्या किस योग्य वरके लिए देवें, इस प्रकार उसने मन्त्रियों के साथ मिलकर विचार किया ॥४॥ इस तरह राजाके चिन्ताकुल रहते हुए जब कितने ही दिन बीत गये तब किसी समय नारद आये और राजासे उन्होंने सन्मान प्राप्त किया ॥५॥ जिनकी बुद्धि समस्त लोककी चेष्टाको जाननेवाली थी ऐसे नारद जब सुखसे बैठ गये तब राजाने आदरके साथ उनसे प्रकृत बात कहो ॥६॥ इसके उत्तरमें अवद्वार नामके धारक नारदने कहा कि हे राजन्! क्या आप इस युगके प्रधान पुरुष श्री रामके भाई लक्ष्मणको नहीं जानते ? वह लक्ष्मण उत्कृष्ट लक्ष्मीको धारण करनेवाला है, सुन्दर लक्षणोंसे सहित है तथा चक्रके प्रभावसे उसने समस्त शत्रुओंको नतमस्तक कर दिया है ॥७-८॥ सो जिस प्रकार चन्द्रिका कुमुदवनको आनन्द देनेवाली है उसी प्रकार हृदयको आनन्द देनेवाली यह परम सुन्दरी कन्या उसके अनुरूप है ॥६॥ नारदके इस प्रकार कहने पर रत्नरथके हरिवेग, मनोवेग तथा वायुवेग आदि अभिमानी पुत्रकुपित हो उठे ॥१०॥ आत्मीय जनोंके घातसे उत्पन्न अत्यधिक नूतन वैरका स्मरण कर वे प्रलय कालकी अग्निके समान प्रदीप्त हो उठे तथा उनके शरीर क्रोधसे काँपने लगे। उन्होंने कहा कि जिस दुष्टको आज ही जाकर तथा शीघ्र ही बुलाकर हमलोगोंको मारना चाहिए उसके लिए कन्या नहीं दी जाती है ।।११-१२।। इतना कहने पर राजपुत्रोंकी भौंहोंके विकारसे प्रेरित हुए किङ्करोंके समूहने नारदके पैर पकड़ कर खींचना चाहा परन्तु उसी समय देवर्षि नारद शीघ्र ही आकाशतलमें उड़ गये और बड़े आदरके साथ अयोध्या नगरीमें लक्ष्मणके समीप जा पहुँचे ॥१३-१४॥ पहले तो नारदने विस्तारके साथ लक्ष्मणके लिए समस्त संसारकी वार्ता सुनाई और उसके बाद
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