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पद्मपुराणे
श्मशानसदृशा ग्रामाः प्रेतलोकोपमाः पुरः । क्लिष्टा जनपदाः कुत्स्या भविष्यन्ति दुरीहिताः ॥५६॥ कुकर्मनिरतैः क्रूरैश्चोरैरिव निरन्तरम् । दुःपाषण्डैरयं लोको भविष्यति समाकुलः ॥५७॥ महीतलं खलं द्रव्यपरिमुक्ताः कुटुम्बिनः । हिंसाक्लेशसहस्राणि भविष्यन्तीह सन्ततम् ॥ ५८ ॥ पितरौ प्रति निःस्नेहाः पुत्रास्तौ च सुतान् प्रति । चौरा इव च राजानो भविष्यन्ति कलौ सति ॥५६॥ सुखिनोऽपि नराः केचिन् मोहयन्तः परस्परम् । कथाभिर्दुर्गतीशाभी रंस्यन्ते पापमानसाः ॥ ६० ॥ नंचयन्त्यतिशयाः सर्वे त्रिदशागमनादयः । कषायबहुले काले शत्रुघ्न ! समुपागते ॥ ६१ ॥ जातरूपधरान् दृष्ट्वा साधून् व्रतगुणान्वितान् । सन्जुगुप्सां करिष्यन्ति महामोहान्विता जनाः ||६२॥ अप्रशस्ते प्रशस्तत्वं मन्यमानाः कुचेतसः । भयपक्षे पतिष्यन्ति पतङ्गा इन मानवाः ॥ ६३ ॥ प्रशान्तहृदयान् साधून् निर्भत्स्य विहसोद्यताः । मूढा मूढेषु दास्यन्ति केचिदन्नं प्रयत्नतः ॥ ६४॥ इत्थमेतं निराकृत्य प्रायोन्यं समागतम् । यतिनो मोहिनो देयं दास्यन्त्यहितभावनाः || ६५ ॥ बीजं शिलातले न्यस्तं सिच्यमानं सदापि हि । अनर्थकं यथा दानं तथाशीलेषु गेहिनाम् ॥ ६६ ॥ अवज्ञाय मुनीन् गेही गेहिने यः प्रयच्छति । त्यक्त्वा स चन्दनं मूढो गृह्णात्येव विभीतकम् || ६७ || इति ज्ञात्वा समायातं कालं दुःषमताधमम् । विधत्स्वात्महितं किञ्चित्स्थि रैकार्य शुभोदयम् ॥ ६८ ॥ नामग्रहणकोऽस्माकं भिक्षावृत्तिमवाससाम् । परिकल्पय तत्सारं तव द्रविणसम्पदः ॥ ६१ ॥ आगमिष्यति काले सा श्रान्तानां त्यक्तवेश्मनाम् । भविष्यत्याश्रयो राजन् स्वगृहाशयसम्मिता ॥७०॥
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समय ग्राम श्मशान के समान, नगर यमलोक के समान और देश क्लेश से युक्त निन्दित तथा दुष्ट चेष्टाओंके करनेवाले होंगे || ५६ ॥ | यह संसार चोरोंके समान कुकर्म में निरत तथा क्रूर दुष्ट पाषण्डी लोगों से निरन्तर व्याप्त होगा ॥५७॥ यह पृथिवीतल दुष्ट तथा गृहस्थ निर्धन होंगे साथ ही यहाँ हिंसा सम्बन्धी हजारों दुःख निरन्तर प्राप्त होते रहेंगे ॥ ५८ ॥ पुत्र, माता-पिता के प्रति और मातापिता पुत्रों के प्रति स्नेह रहित होंगे तथा कलिकालके प्रकट होने पर राजा लोग चोरोंके समान धनके अपहर्ता होंगे ॥५६॥ कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे तथापि उनके मनमें पाप होंगा और वे दुर्गतिको प्राप्त कराने में समर्थ कथाओंसे परस्पर एक दूसरेको मोहित करते हुए क्रीड़ा करेंगे ॥ ६० ॥ हे शत्रुघ्न ! कषाय बहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जावेंगे ॥ ६१ ॥ तत्र मिथ्यात्वसे युक्त मनुष्य व्रत रूप गुणोंसे सहित एवं दिगम्बर मुद्राके धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे || ६२ ॥ अप्रशस्तको प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुर्हृदय लोग भयके पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह कि पतङ्गे अग्निमें जा पड़ते हैं || ६३ || हँसी करनेमें उद्यत कितने ही मूढ मनुष्य शान्त चित्त मुनियोंको तिरस्कृत कर मूढ मनुष्योंके लिए आहार देवेंगे ॥६४॥ इस प्रकार अनिष्ट भावनाको धारण करनेवाले गृहस्थ उत्तम मुनिका तिरस्कार कर तथा मोही मुनिको बुलाकर उसके लिए योग्य आहार आदि देंगे ||६५|| जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तथापि निरर्थक होता है-उसमें फल नहीं लगता है उसी प्रकार शील रहित मनुष्योंके लिए दिया हुआ गृहस्थोंका दान भी निरर्थक होता है ॥ ६६ ॥ जो गृहस्थ मुनियोंकी अवज्ञाकर गृहस्थ के लिए आहार आदि देता है वह मूर्ख चन्दनको छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करता है ॥ ६७॥ इस प्रकार दुःषमता के कारण अधम कालको आया जान आत्माका हित करनेवाला कुछ शुभ तथा स्थायी कार्य कर || ६८|| तू नामी पुरुष है अतः निर्ग्रन्थ मुनियोंको भिक्षावृत्ति देनेका निश्चय कर । यही तेरी धन-सम्पदाका सार है ॥ ६६ ॥ हे राजन् ! आगे आनेवाले कालमें थके हुए मुनियोंके लिए भिक्षा देना अपने गृहदान के समान एक बड़ा भारी आश्रय होगा
१. विहस्योद्यताः म० । २. प्राडूयान्यसमागतं म० । ३. स्थिरं कार्यं म० । क० पुस्तके ६८ तः ७१ पर्यन्तः श्लोका न सन्ति ।
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