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द्विनवतितमं पर्व
तत्राप्युत्तमसम्यक्त्वो विधाय मुनिवन्दनाम् । पूजोपकरणं कर्तुमुद्यतः सर्वयत्नतः ॥४२॥ प्रपानाटकसङ्गीतशालादिपरिराजितम् । जातं तदाश्रमस्थानं स्वर्गदेशमनोहरम् ॥४॥ तं वृत्तान्तं समाकर्ण्य शत्रुघ्नः स्वतुरीयकः । महातुरङ्गमारूढः ससमुन्यन्तिकं ययौ ॥४॥ मुनीनां परया भक्त्या पुत्रस्नेहाच्च पुष्कलात् । माताऽप्यस्य गता पश्चात् समुद्माहितकोष्ठिका ॥४५॥ ततः प्रणम्य भक्तास्मा सम्मदी रिपुमर्दनः । मुनीन् समाप्तनियमान् पारणार्थमयाचत ॥४६॥ तत्रोक्तं मुनिमुख्येन नरपुङ्गव कल्पितम् । उपेत्य भोक्तुमाहारं संयतानां न वर्तते ॥४॥ अकृताकारितां भिक्षा मनसा नानुमोदिताम् । गृडतां विधिना युक्तां तपः पुष्यति योगिनाम् ॥४८॥ ततो जगाद शत्रुध्नः प्रसादं मुनिपुङ्गवाः । ममेदं कर्तुमर्हन्ति विज्ञापकसुवस्सलाः ॥४॥ कियन्तमपि कालं मे नगर्यामिह तिष्ठत । शिवं सुभिक्षमेतस्यां प्रजानां येन जायते ॥५०॥ भागतेषु भवरस्वेषा समृद्धा सर्वतोऽभवत् । नष्टापातेषु' नलिनी यथा विसरदुस्सवा ॥५१॥ इत्युक्त्वाऽचिन्तयच्छ्राद्धः कदा नु खलु वान्छितम् । अनं दास्यामि साधुभ्यो विधिना सुसमाहितः ॥५२॥ अथ श्रेणिक शत्रुघ्नं निरीचयाऽऽनतमस्तकम् । कालानुभावमाचख्यौ यथावन्मुनिसत्तमः ॥५३॥ धर्मनन्दनकालेषु व्ययं यातेष्वनुक्रमात् । भविष्यति प्रचण्डोऽत्र निधर्मसमयो महान् ॥५४॥
दुःपापण्डैरिदं जैनं शासनं परमोन्नतम् । तिरोधायिष्यते क्षुदैर्रजोभिर्भानुबिम्बवत् ॥५५॥ स्थान पर पहुँच गया ॥४१॥ वहाँ उत्तम सम्यक्त्वको धारण करनेवाला वह श्रेष्ठ मुनियोंकी वन्दना कर पूर्ण प्रयत्नसे पूजाकी तैयारी करनेके लिए उद्यत हुआ ॥४२॥ प्याऊ, नाटक-गृह तथा संगीतशाला आदिसे सुशोभित वह आश्रमका स्थान स्वर्गप्रदेशके समान मनोहर हो गया ।।४३॥ यह वृत्तान्त सुन राजा दशरथका चतुर्थ पुत्र शत्रुघ्न महातुरङ्ग पर सवार हो. सप्तर्षियोंके समीप गया ॥४४॥ मुनियोंकी परम भक्ति और पुत्रके अत्यधिक स्नेहसे उसकी माता सुप्रजा भी खजाना लेकर उसके पीछे आ पहुँची ॥४॥
__तदनन्तर भक्त हृदय एवं हर्षसे भरे शत्रुघ्नने नियमको पूर्ण करनेवाले मुनियोंको नमस्कार कर उनसे पारणा करनेकी प्रार्थना की ॥४६॥ तब उन मुनियों में जो मुख्य मुनि थे उन्होंने कहा कि हे नरश्रेष्ठ ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है उसे ग्रहण करनेके लिए मुनि प्रवृत्ति नहीं करते ।।४७॥ जो न स्वयं की गई है, न दूसरेसे कराई गई और न मनसे जिसको अनुमोदना की गई है ऐसी भिक्षाको विधि पूर्वक ग्रहण करनेवाले योगियोंका तप पुष्ट होता है ॥४८।। तदनन्तर शत्रुघ्नने कहा कि हे मुनिश्रेष्ठो ! आप प्रार्थना करनेवालों पर अत्यधिक स्नेह रखते हैं अतः हमारे ऊपर यह प्रसन्नता करनेके योग्य हैं कि आप कुछ काल तक मेरी इस
में और ठहरिये जिससे कि इसमें रहनेवाली प्रजाको आनन्ददायी सभिक्षकी प्राप्ति हो सके ॥४६-५०॥ आप लोगोंके आने पर यह नगरी उस तरह सब ओरसे समृद्ध हो गई है जिस तरह कि वर्षाके नष्ट हो जाने पर कमलिनी सब ओरसे समृद्ध हो जाती है-खिल उठती है ॥५१॥ इतना कहकर श्रद्धासे भरा शत्रुघ्न चिन्ता करने लगा कि मैं प्रमाद रहित हो विधि पूर्वक मुनियोंके लिए मन वाञ्छित आहार कब दूंगा ॥५२॥
___अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! शत्रुघ्नको नतमस्तक देखकर उन उत्तम मुनिराजने उसके लिए यथायोग्य कालके प्रभावका निरूपण किया ॥५३।। उन्होंने कहा कि जब अनुक्रमसे तीर्थंकरोंका काल व्यतीत हो जायगा तब यहाँ धर्मकर्मसे रहित अत्यन्त भयंकर समय होगा ॥५४॥ दुष्ट पाखण्डी लोगोंके द्वारा यह परमोन्नत जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायगा जिस तरह कि धूलिके छोटे-छोटे कणोंके द्वारा सूर्यका बिम्ब तिरोहित हो जाता है ॥५।। उस
१. प्रातेषु म०। २. अन्यं म०। Jain Education International
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