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एकनवतितमं पर्व
अथ राजगृहस्वामी जगादाद्भुतकौतुकः । भगवन्केन कार्येण तामेवासावयाचत ॥१॥ बहवो राजधान्योऽन्याः सन्ति स्वर्लोकसन्निभाः । तत्र शत्रुघ्नवीरस्य का प्रीतिर्मथुरां प्रति ॥ २ ॥ दिव्यज्ञानसमुद्रेण गणोडुशशिना ततः । गौतमेनोच्यत 'प्रीतिर्यथा तत्कुरु चेतनि ॥३॥ बहवो हि भवास्तस्य तस्यामेवाभवंस्ततः । तामेव प्रति सोद्रेकं स्नेहमेष न्यषेवत ॥४॥ संसारार्णवसंसेवी जीवः कर्मस्वभावतः । जम्बूद्वीपभरते मथुरां समुपागतः ॥५॥ क्रूरो यमुनदेवाख्यो धर्मैकान्तपराङ्मुखः । स प्रेत्य क्रोडवालेयवाय सत्वाम्यसेवत ॥६॥ अजत्वं च परिप्राप्तो मृतो भवनदाहतः । महिषो जलवाहोऽभूदायते गबले वहन् ॥७॥ षड्वारान्महिषो भूत्वा दुःखमापणसङ्गतः । पञ्चकृत्वो मनुष्यत्वं दुःकुलेष्वधनोऽभजत् ॥८॥ मध्यकर्मसमाचाराः प्राप्यार्यत्वं मनुष्यताम् । प्राणिनः प्रतिपद्यन्ते किञ्चित्कर्मपरिक्षयम् ॥१॥ ततः कुलन्धराभिख्यः साधुसेवापरायणः । विप्रोऽसावभवद्रूपी शीलसेवाविवर्जितः ॥ १० ॥ अशङ्कित इव स्वामी पुरस्तस्या जयाशया । यातो देशान्तरं तस्य महिषी ललिताभिधा ॥ ११॥ प्रासादस्था कदाचित्सा वातायनगतेक्षणा । निरैक्षत तकं विप्रं दुश्चेष्टं कृतकारणम् ॥१२॥ सा तं क्रीडन्तमालोक्य मनोभवशराहता । आनाययद्वहोऽत्यन्तमाप्तया चित्तहारिणम् ॥ १३ ॥ तस्या एकासने चासावुपविष्टो नृपश्च सः । अज्ञातागमनोऽपश्यत्सहसा तद्विचेष्टितम् ॥१४॥
अथानन्तर अद्भुत कौतुकको धारण करने वाले राजा श्रेणिकने गौतम स्वामी से पूछा कि हे भगवन् ! वह शत्रुघ्न किस कार्य से उसी मथुराकी याचना करता था ॥ १॥ स्वर्गलोकके समान अन्य बहुत सी राजधानियाँ हैं उनमें से केवल मथुरा के प्रति ही वीर शत्रुघ्न की प्रीति क्यों है ? ||२॥ तब दिव्य ज्ञानके सागर एवं गणरूपी नक्षत्रोंके बीच चन्द्रमा के समान गौतम गणधरने कहा कि जिस कारण शत्रुघ्नकी मथुरा में प्रीति थी उसे मैं कहता हूँ तू चित्तमें धारण कर ||३|| यतश्च उसके बहुत से भव उसी मथुरा में हुए थे इसलिए उसीके प्रति वह अत्यधिक स्नेह धारण करता था ||४|| संसार रूपी सागरका सेवन करने वाला एक जीव कर्मस्वभाव के कारण जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रको मथुरा नगरी में यमुनदेव नामसे उत्पन्न हुआ। वह स्वभावका का तथा धर्मसे अत्यन्त विमुख रहता था। मरनेके बाद वह क्रमसे सूकर, गधा और कौआ हुआ ॥५- ६ || फिर बकरा हुआ, तदनन्तर भवनमें आग लगने से मर कर लम्बे-लम्बे सींगों को धारण करनेवाला भैंसा हुआ। यह भैंसा पानी ढोनेके काम आता था ॥ ७ ॥ यह यमुनदेवका जीव छह बार तो नाना दुःखोंको प्राप्त करनेवाला भैंसा हुआ और पाँच बार नीच कुलों में निर्धन मनुष्य हुआ ||८|| सो ठीक ही है क्योंकि जो प्राणी मध्यम आचरण करते हैं वे आर्य मनुष्य हो कुछ-कुछ कर्मों का क्षय करते हैं ||६|| तदनन्तर वह साधुओं की सेवामें तत्पर रहने वाला कुलधर नामका ब्राह्मण हुआ। वह कुलन्धर रूपवान् तो था पर शीलकी आराधनासे रहित था ॥ १०॥ एक दिन उस नगरका राजा विजय प्राप्त करने की आशासे निःशङ्क की तरह दूसरे देशको गया था और उसकी ललिता नामकी रानी महल में अकेली थी । एक दिन वह झरोखेपर दृष्टि डाल रही थी कि उसने संकेत करनेवाले उस दुश्चेष्ट ब्राह्मणको देखा ।।११-१२॥ क्रीडा करते हुए उस कुलन्धर ब्राह्मणको देख कर रानी कामके बाणों से घायल हो गई जिससे उसने एक विश्वासपात्र सखीके द्वारा उस हृदयहारीको अत्यन्त एकान्त स्थान में बुलवाया || १३|| महलमें जाकर वह
१. प्रीतिं म० ।
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