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नवतितमं पर्व
ततोऽरिम्नानुभावेन विफलं तेजसोझितम् । अमोघमपि तद्दिव्यं शूलरत्नं विधिच्युतम् ॥१॥ वहन खेदं च शोकं च अपांच जवमुक्तवत् । स्वामिनोऽसुरनाथस्य चमरस्यान्तिकं ययौ ॥२॥ मरणे कथिते तेन मधोश्चमरपुङ्गवः। आहतः खेदशोकाभ्यां तत्सौहार्दगतस्मृतिः ॥३॥ रसातलात्समुत्थाय त्वरावानतिभासुरः । प्रवृत्तो मथुरां गन्तुमसौ संरम्भसङ्गतः ॥४॥ भ्राम्यन्नथ सुपर्णेन्द्रो वेणुदारी तमैक्षत । अपृच्छच्च क दैत्येन्द्र गमनं प्रस्तुतं त्वया ॥५॥ ऊचेऽसौ परमं मित्रं येन मे निहतं मधुः । सजनस्यास्य वैषम्यं विधातुमहमुद्यतः ॥६॥ सुपर्णेशो जगौ किं न विशल्यासम्भवं त्वया। माहात्म्यं निहितं कर्णे येनवमभिलष्यसि ॥७॥ जगादासावतिक्रान्ताः कालास्ते परमाद्भताः । अचिन्त्यं येन माहात्म्यं विशल्यायास्तथाविधम् ॥८॥ कौमारव्रतयुक्तासावासीदभूतकारिणी । योगेन जनितेदानी निर्विषेव भुजङ्गिका ॥६॥ नियताचारयुक्तानां प्रभवन्ति मनीषिणाम् । भावा निरतिचाराणां श्लाघ्याः पूर्वकपुण्यजाः ॥१०॥ जितं विशल्यया तावद् गर्वमाश्रितया परम् । यावन्नारायणस्यास्यं न दृष्टं मदनावहम् ॥११॥ सुरासुरपिशाचाद्या बिभ्यति व्रतचारिणाम् । तावद् यावन्न ते तीक्ष्णं निश्चयासि जहत्यहो ॥१२॥
अथानन्तर मधु सुन्दरका वह दिव्य शूल रत्न यद्यपि अमोघ था तथापि शत्रुघ्नके प्रभावसे निष्फल हो गया था, उसका तेज छूट गया था और वह अपनी विधिसे च्युत हो गया था॥११॥ अन्तमें वह खेद शोक और लज्जाको धारण करता हुआ निर्वेगकी तरह अपने स्वामी असुरोंके अधिपति चमरेन्द्र के पास गया ॥२॥ शूल रत्नके द्वारा मधुके मरणका समाचार कहे जाने पर उसके सौहार्दका जिसे बार-बार स्मरण आ रहा था ऐसा चमरेन्द्र खेद और शोकसे पीड़ित हुआ ॥३॥ तदनन्तर वेगसे युक्त, अत्यन्त देदीप्यमान और क्रोधसे सहित वह चमरेन्द्र पातालसे उठकर मथुरा जाने के लिए उद्यत हुआ ॥४॥ अथानान्तर भ्रमण करते हुए गरुड़कुमार देवोंके इन्द्र वेणुदारीने चमरेन्द्रको देखा और देखकर उससे पूछा कि हे दैत्यराज ! तुमने कहाँ जानेकी तैयारी की है ? ॥५॥ तब चमरेन्द्रने कहा कि जिसने मेरे परम मित्र मधु सुन्दरको मारा है उस मनुष्यकी विषमता करनेके लिए यह मैं उद्यत हुआ हूँ ॥६॥ इसके उत्तरमें गरुडेन्द्रने कहा कि क्या तुमने कभी विशल्याका माहात्म्य कर्णमें धारण नहीं किया-नहीं सुना जिससे कि ऐसा कह रहे हो ? ॥७॥ यह सुन चमरेन्द्र ने कहा कि अब अत्यन्त आश्चर्यको करनेवाला वह समय व्यतीत हो गया जिस समय कि विशल्याका वैसा अचिन्त्य माहात्म्य या ॥८॥ जब वह कौमार व्रतसे युक्त थी तभी आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली थी अब इस समय तो नारायणके संयोगसे वह विष रहित भुजंगीके समान हो गई है ॥६॥ जो मनुष्य नियमित आचारका पालन करते हैं, बुद्धिमान हैं तथा सब प्रकारके अतिचारोंसे रहित हैं उन्हींके पूर्व पुण्यसे उत्पन्न हुए प्रशंसनीय भाव अपना प्रभाव दिखाते हैं ॥१०॥ अत्यधिक गर्वको धारण करनेवाली विशल्याने तभी तक विजय पाई है जब तक कि उसने काम चेष्टाको धारण करनेवाला नारायणका मुख नहीं देखा था ॥११॥ व्रतका आचरण करनेवाले मनुष्योंसे सुर-असुर तथा पिशाच आदि तभी तक डरते हैं जब तक कि वे निश्चय रूपी तीक्ष्ण खङ्गको नहीं छोड़ देते हैं ॥१२॥ जो मनुष्य मद्य मांससे निवृत्त है, सैकड़ों प्रतिपक्षियोंको नष्ट करनेवाले उसके अन्तरको दुष्ट जीव तब तक नहीं लाँघ सकते जब तक कि इसके नियमरूपी कोट विद्यमान रहता है॥१३॥ रुद्रोंमें एक कालाग्नि नामक भयंकर
१. वेणुधारी म० । २. क पुस्तके एष श्लोको नास्ति। ३. प्रतिचारिणां म० । ४. जहंत्यहो म०, ज०।
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