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पद्मपुराणे
असहन्परसैन्यस्य दपं रौद्रमहास्वनम् । कृतान्तकुटिलोऽविक्षद् वेगवानाहितं बलम् ॥७॥ अवारितगतिस्तत्र रणे क्रीडां चकार सः । स्वयम्भूरमणोद्याने त्रिविष्टपपतियथा ॥७२॥ अथ तं गोचरीकृत्य कुमारो लवणार्णवः । बाणेन इवाम्भोभिस्तिरश्चक्रे महाधरम् ॥७३॥ सोऽप्याकर्णसमाकृष्टैः शरैराशीविषप्रभैः । चिच्छेद सायकानस्य तैश्च व्याप्तं महीनभः ॥७॥ अन्योन्यं विरीकृत्य सिंहाविव बलोत्कटौ । करिपृष्ठसमारूढौ सरोषौ चक्रतुयुधम् ॥७५॥ विताडितः कृतान्तः सः प्रथमं वक्षसीषुणा । चकार कवचं शत्रु शरैरस्रनन्तरम् ॥७६॥ ततस्तोमरमुद्यम्य कृतान्तवदनं पुनः । लवणोऽताडयत् क्रोधविस्फुरल्लोचनद्युतिः ॥७७॥ स्वशोणितनिषेकाक्तौ महासंरम्भवर्तिनौ । विशुकानोकहच्छायौ प्रवीरौ तौ विरेजतुः ॥७॥ गदासिचक्रसम्पातो बभूव तुमुलस्तयोः । परस्परबलोन्मादविषादकरणोत्कटः ॥७॥ दत्तयुद्धश्चिरं शक्त्या ताडितो लवणार्णवः । वक्षस्यपासृतः क्षोणी स्वर्गीय सुकृतक्षयात् ॥८॥ पतितं तनयं वीच्य मधुराहवमस्तके । धावन् कृतान्तवक्त्राय शत्रुघ्नेन विशब्दितः ॥८॥ शत्रुध्न गिरिणा रुद्धो मधुवाहो व्यवद्धत । गृहीतः शोककोपाभ्यां दुःसहाभ्यामुपक्रमन् ॥२॥ दृष्टिमाशीविषस्येव तस्याशक्तं निरीक्षितुम् । सैन्यं व्यदवदत्युग्राद् वाताद् वानदलौघवत् ॥३॥
तस्याभिमुखमालोक्य व्रजन्तं सुप्रजः सुतम् | अभिमानसमारूढा योधाः प्रत्यागता मुहुः ॥८॥ घोड़ोंके सवार एवं पैदल सैनिक, वेगशाली रथ, हाथी तथा घोड़ोंके सवारों एवं पैदल सैनिकों के साथ भिड़ गये ॥७०॥ शत्र सेनाके भयंकर शब्द करनेवाले दर्पको सहन नहीं करता हुआ कृतान्तवक्त्र बड़े वेगसे शत्रकी सेनामें जा घुसा ॥७१।। सो जिस प्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र में इन्द्र विना किसी रोक-टोकके क्रीड़ा करता है उसी प्रकार वह कृतान्तवक्त्र भी विना किसी रोक-टोकके युद्ध में क्रीड़ा करने लगा ॥७२।। तदनन्तर जिस प्रकार मेघ, जलके द्वारा महापर्वतको आच्छादित करता है उसी प्रकार मधसन्दरके पत्र लवणार्णवने, कृतान्तवक्त्रका सामना कर उसे बाणोंसे आच किया ।।७३।। इधर कृतान्तवक्त्रने भी, कान तक खिंचे हुए सर्प तुल्य बाणोंके द्वारा उसके बाण काट डाले और उनसे पृथिवी तथा आकाशको व्याप्त कर दिया ||७४।। सिंहांके समान बलसे उत्कट दोनों योद्धा परस्पर एक दूसरेके रथ तोड़कर हाथीकी पीठ पर आरूढ हो क्रोध सहित युद्ध करने लगे ।।७५|| प्रथम ही लवणार्णवने कृतान्तवक्त्रके वक्षःस्थल पर बाणसे प्रहार किया सो उसके उत्तरमें कृतान्तवक्त्रने भी बाणों तथा शस्त्रोंके प्रहारसे शत्रु और कवचको अन्तरसे रहित कर दिया अर्थात् शत्रका कवच तोड़ डाला ॥७६।। तदनन्तर क्रोधसे जिसके नेत्रोंकी कान्ति देदीप्यमान हो रही थी ऐसे लवणार्णवने तोमर उठाकर कृतान्तवक्त्र पर पुनः प्रहार किया ॥८७|| जो अपने रुधिरके निषेकसे युक्त थे तथा महाक्रोध पूर्वक जो भयंकर युद्ध कर रहे थे ऐसे दोनों वीर फूले हुए पलाश वृक्षके समान सुशोभित हो रहे थे ।।७।। उन दोनोंके बीच, अपनी-अपनी सेनाके हर्ष विषाद करनेमें उत्कट गदा खड्ग और चक्र नामक शस्त्रोंकी भयंकर वर्षा हो रही थी ॥७६॥ तदनन्तर चिरकाल तक युद्ध करने के बाद जिसके वक्षःस्थल पर शक्ति नामक शस्त्रसे प्रहार किया गया था ऐसा लवणार्णव पृथिवी पर इस प्रकार गिर पड़ा जिस प्रकार कि पुण्य क्षय होनेसे कोई देव पृथिवी पर आ पड़ता है ॥८॥ ___रणाग्र भागमें पुत्रको गिरा देख मधु कृतान्तवक्त्रको लक्ष्य कर दौड़ा परन्तु शत्रुघ्नने उसे बीचमें धर ललकारा ।।१।। जो दुःखसे सहन करने योग्य शोक और क्रोध के वशीभूत था ऐसा मधुरूपी प्रवाह शत्रुघ्नरूपी पर्वतसे रुककर समीपमें वृद्धिको प्राप्त हुआ ।।२।। आशीविष सर्पके समान उसकी दृष्टिको देखने के लिए असमर्थ हुई शत्रुघ्नकी सेना उस प्रकार भाग उठी जिस प्रकार कि तीक्ष्ण वायुसे सूखे पत्तोंका समूह भाग उठता है ।।८३॥ तदनन्तर शत्रुघ्नको उसके
१. शत्रुघ्नम् ।
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