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नवाशीतितम पर्व
१६३
अर्द्धरात्रे व्यतीतेऽसौ परलोके प्रमादिनि । निवृत्य प्राविशद्वारस्थानं लब्धमहोदयः ॥५६॥ आसीद् योगीव शत्रुघ्नः द्वारं कर्मेव चूर्णितम् । प्राप्ताऽत्यन्तमनोज्ञा च मथुरा सिद्धिभूरिव ॥५॥ देवो जयति शत्रुध्नः श्रीमान् दशरथात्मजः । बन्दिनामिति वक्त्रेभ्यो महानादः समुद्ययौ ॥५॥ परेणाथ समाक्रान्तां विज्ञाय नगरी जनः । लङ्कायामङ्गादप्राप्तौ यथा क्षोभमितो भयात् ॥५॥ त्रासात्तरलनेत्राणां स्त्रीणामाकुलताजुषाम् । सद्यः प्रचलिता गर्दा हृदयेन समं भृशम् ॥६॥ महाकलकलारावप्रेरणे प्रतिबोधिनः । उद्ययुः सहसा शूराः सिंहा इव भयोज्झिताः ॥६१॥ विध्वस्य शब्दमात्रेण शत्रुलोकं मधोहम् । सुप्रभातनयोऽविक्षदत्यन्तोजितविक्रमः ॥६२॥ तत्र दिव्यायुधाकीणां सुतेजाः परिपालयन् । शालामवस्थितः प्रीतो यथार्ह समितोदयः ॥६३॥ मथुराभिमनोज्ञाभिारताभिरशेषतः । नीतो लोकः समाश्वासं जहौ त्राससमागमम् ॥६॥ शत्रुघ्नं मथुरां ज्ञात्वा प्रविष्टं मधुसुन्दरः । निरैद् रावणवत्कोपादुद्यानात् स महाबलः ॥६५॥ शत्रुध्नरक्षित स्थानं प्रवेष्टुमधुरार्थिवः । निर्ग्रन्धरक्षितं मोहो यथा शक्नोति नो तदा ॥६६॥ प्रवेशं विविधोपायैरलब्ध्वाप्यभिमानवान् । रहितश्चापि शूलेन न सन्धि वृणुते मधुः ॥६॥ असहन्तः परानीकं द्रष्टु दर्पसमुधुरम् । शत्रुध्नसैनिकाः सैन्यात् स्वस्मानिययुरश्विनः ॥६॥ तत्राहवसमारम्भे शात्रुघ्नं सकलं बलम् । प्राप्त जातश्च संयोगस्तयोः सैन्यसमुद्रयोः ॥६६॥ रथेभलादिपादाता: समर्था विविधायुधाः। रथेभैः सादिपादातरालग्नाः सह वेगिभिः ॥७॥
तदनन्तर अर्धरात्रि व्यतीत होनेपर जब सब लोग आलस्यमें निमग्न थे, तब महान् ऐश्वर्य को प्राप्त हुए शत्रुघ्नने लौटकर मथुराके द्वार में प्रवेश किया ॥५६।। वह शत्रुघ्न योगीके समान था, द्वार कमों के समूहके समान चूर चूर हो गया था, और अत्यन्त मनोहर मथुरा नगरी सिद्ध भूमिके समान थी ॥५७|| 'राजा दशरथके पुत्र शत्रुघ्नकी जय हो' इस प्रकार वन्दोजनों के मुखोंसे बड़ा भारी शब्द उठ रहा था ॥५॥
अथानन्तर जिस प्रकार लंकामें अंगदके पहुंचने पर लंकाके निवासी लोग भयसे क्षोभको प्राप्त हुए थे उसी प्रकार नगरीको शत्रुके द्वारा आक्रान्त जान मथुरावासी लोग भयसे क्षोभको प्राप्त हो गये ॥५६॥ भयके कारण जिनके नेत्र चञ्चल हो रहे थे तथा जो आकुलताको प्राप्त थीं ऐसी स्त्रियोंके गर्भ उनके हृदयके साथ-साथ अत्यन्त विचलित हो गये ॥६०॥ महा कलकल शब्दकी प्रेरणा होने पर जो जाग उठे थे ऐसे निर्भय शूर-वीर सिंहोंके समान महसा उठ खड़े हुए ॥६१।। तत्पश्चात् अत्यन्त प्रबल पराक्रमको धारण करनेवाला शत्रुघ्न, शब्दमात्रसे ही शत्रुसमूहको नष्ट कर राजा मधुके घरमें प्रविष्ट हुआ ।।६। वहाँ वह अतिशय प्रतापी शत्रुघ्न दिव्य शत्रोंसे व्याप्त आयुधशालाकी रक्षा करता हुआ स्थित था। वह प्रसन्न था तथा यथायोग्य अभ्युदयको प्राप्त था ॥६३।। वह मधुर तथा मनोज्ञ वाणीके द्वारा सबको सान्त्वना प्राप्त कराता था इसलिए सबने भयका परित्याग किया था ॥६४॥ तदनन्तर शत्रुघ्नको मथुरामें प्रविष्ट जानकर वह महाबलवान् मधुसुन्दर रावणके समान क्रोध वश उद्यानसे बाहर निकला ।।६५॥ उस समय जिस प्रकार निर्ग्रन्थ मुनिके द्वारा रक्षित आत्मामें मोह प्रवेश करनेके लिए समर्थ नहीं हैं उसी प्रकार शत्रुघ्नके द्वारा रक्षित अपने स्थानमें राजा मधु प्रवेश करनेके लिए समर्थ नहीं हुआ ॥६६॥ यद्यपि मधु नाना उपाय करने पर भी मथुरामें प्रवेशको नहीं पा रहा था, और शूलसे रहित था तथापि वह अभिमानी होनेके कारण शत्रुघ्नसे सन्धिकी प्रार्थना नहीं करता था ॥६५॥ तत्पश्चात् अहंकार से उत्कट शत्रु सेनाको देखने के लिए असमर्थ हुए शत्रुघ्नके घुड़सवार सैनिक अपनी सेनासे बाहर निकले ॥६॥ वहाँ युद्ध प्रारम्भ होते-होते शत्रुघ्नकी समस्त सेना आ पहुँची और दोनों ही पक्षकी सेना रूपी सागरों के बीच संयोग हो गया अर्थात् दोनों ही सेनाओंमें मुठभेड़ शुरू हुई ॥६६॥ उस समय शक्तिसे सम्पन्न तथा नाना प्रकारके शस्त्र धारण करनेवाले रथ हाथी तथा
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