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नवाशीतितमं पर्व
परात्मशासनाभिज्ञाः कृतानुगतशासनाः । सदायुष्नुपाध्यायाः कुर्वन्तु तव मङ्गलम् ॥२६॥ तपसा द्वादशाङ्गेन निर्वाणं साधयन्ति ये । भद्र ते साधवः शूरा भवन्तु तव मङ्गलम् ॥३०॥ इति प्रतीय' विघ्ननामाशिषं दिव्यमङ्गलाम् । प्रणम्य मातरं यातः शत्रुघ्नः सद्मनो बहिः ॥३१॥ मकक्ष परीतं स समारूढो महागजम् । रराजाम्बुदपृष्ठस्थः सम्पूर्ण इव चन्द्रमाः ||३२|| नानायानसमारूढैर्नरराजशतैर्वृतः । शुशुभे स वृतो देवैः सहस्रनयनो यथा ॥ ३३॥ श्री नावासानुरूप्रीतिं भ्रातरं स समागतम् । जगौ पूज्य निवर्त्तस्व द्वाग्ब्रजाम्यनपेक्षतः ॥३४॥ लक्ष्मणेन धनूरनं समुद्रावर्तमर्पितम् । तस्मै ज्वलनवक्त्राश्च शराः पवनरंहसः ||३५|| कृतान्तवक्त्रमात्माभं नियोज्यास्मै चमूपतिम् । लक्ष्मणेन समं रामश्चिन्तायुक्तो न्यवर्तत ॥ ३६ ॥ राजमरिघ्नवीरोऽपि महाबलसमन्वितः । मथुरां प्रति याति स्म मधुराजेन पालिताम् ॥३७॥ क्रमे पुण्यभागायास्तीरं प्राप्य ससम्भ्रमम् । सैन्यं न्यवेशयदूदूरमध्वानं समुपागतम् ॥ ३८ ॥ कृताशेषक्रियस्तत्र मन्त्रिवर्गों गतश्रमः । चकार संशयापनो मन्त्र मत्यन्त सूक्ष्मधीः ॥ ३३ ॥ मधुभङ्गकृताशंसां पश्यतास्य धियं शिशोः । केवलं योऽभिमानेन प्रवृत्तो नयवर्जितः ॥ ४० ॥ महावीर्यः पुरा येन मान्धाता निर्जितो रणे । खेचरैरपि दुःसाध्यो जय्यः सोऽस्य कथं मधुः ॥४१॥ चलत्पादाततुङ्गो मिशन ग्राहकुलाकुलम् । कथं वान्छति बाहुभ्यां तरितुं मधुसागरम् ॥४२॥
समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, पृथिवीके समान निश्चल, सुमेरुके समान उन्नतउदार, समुद्र के समान गम्भीर और आकाशके समान निःसङ्ग हैं तथा परम आधार स्वरूप हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी तेरे लिए मङ्गलरूप हों ||२ || जो निज और पर शासन के जाननेवाले हैं। तथा जो अपने अनुगामी जनों को सदा उपदेश करते हैं ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हे आयुष्मन् ! तेरे लिए मङ्गल रूप हों ||२६|| और जो बारह प्रकार के तपके द्वारा मोक्ष सिद्ध करते हैं- निर्वाण प्राप्त करते हैं ऐसे शूरवीर साधु परमेष्ठी हे भद्र ! तेरे लिए मङ्गल स्वरूप हों ॥ ३० ॥ इस प्रकार विघ्नोंको नष्ट करनेवाले दिव्य मङ्गल स्वरूप आशीर्वादको स्वीकृत कर तथा माताको प्रणाम कर शत्रुघ्न घर से बाहर चला गया ॥ ३१ ॥ सुवर्णमयी मालाओंसे युक्त महागज पर बैठा शत्रुघ्न
पृष्ठ पर स्थित पूर्ण चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था ॥ ३२॥ नाना प्रकारके वाहनों पर आरूढ सैकड़ों राजाओं से घिरा हुआ वह शत्रुघ्न, देवोंसे घिरे इन्द्रके समान सुशोभित हो रहा था ॥ ३३॥ अत्यधिक प्रीतिको धारण करनेवाले भाई राम और लक्ष्मण तीन पड़ाव तक उसके साथ गये थे । तदनन्तर उसने कहा कि हे पूज्य ! आप लौट जाइये अब मैं निरपेक्ष हो शीघ्र हो आगे जाता हूँ ||३४|| उसके लिए लक्ष्मणने सागरावर्त नामका धनुषरत्न और वायुके समान वेगशाली अग्निमुख बाग समर्पित किये ॥ ३५ ॥ तत्पश्चात् अपनी समानता रखनेवाले कृतान्तवक्त्रको सेनापति बनाकर रामचन्द्रजी चिन्तायुक्त होने हुए लक्ष्मणके साथ वापिस लौट गये ॥ ३६ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! बड़ी भारी सेना अथवा अत्यधिक पराक्रमसे युक्त वीर शत्रुघ्नने मधु राजाके द्वारा पालित मथुराकी ओर प्रयाण किया ||३७|| क्रम-क्रम से पुण्यभागा नदीका तट पाकर उसने दीर्घ मार्गको पार करनेवाली अपनी सेना संभ्रम सहित ठहरा दी ॥३८॥ वहाँ जिन्होंने समस्त क्रिया पूर्ण की थी, जिनका श्रम दूर हो गया था और जिनकी बुद्धि अत्यन्त सूक्ष्म थी ऐसे मन्त्रियों के समूहने संशयारूढ़ हो परस्पर इस प्रकार विचार किया ॥ ३६ ॥ कि अहो ! मधुके पराजयकी आकांक्षा करनेवाली इस बालककी बुद्धि तो देखो जो नीतिरहित हो केवल अभिमान से ही युद्धके लिए प्रवृत्त हुआ है ||४०|| जो विद्याधरोंके द्वारा भी दुःसाध्य था ऐसा महाशक्तिशाली मान्धाता जिसके द्वारा पहले युद्ध में जीता गया था वह मधु इस बालकके द्वारा कैसे जीता जा सकेगा ? ॥४१॥ जिसमें चलते हुए पैदल सैनिक रूपी ऊँची ऊँची लहरें उठ रही
१. सदायुष्मानुपाध्यायाः म० । २. प्रतीक्ष्य । ३. विघ्नापहारिणीम् । ४. बलात् ज० । २१-३
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