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नवाशीतितमं पर्व
अथ सम्यग्बहन् प्रीति पमाभो लक्ष्मणस्तथा । ऊचे शत्रुघ्न मिष्टं त्वं विषयं रुचिमानय ॥१॥ गृह्णासि किमयोध्याई साधु वा पोदनापुरम् । किं वा राजगृहं रम्यं यदि वा पौण्डसुन्दरम् ॥२॥ इत्याद्याः शतशस्तस्य राजधान्यः सुतेजसः । उपदिष्टा न चास्यता निदधुर्मानसे पदम् ॥३॥ मथुरायाचने तेन कृते पनः पुनर्जगी । मधुर्नाम च तत्स्वामी त्वया ज्ञातो न किं रिपुः ॥४॥ जामाता रावणस्यासावनेकाहवशोभितः । शूलं चमरनाथेन यस्य दत्तमनिष्फलम् ॥५॥ अमरैरपि दुर्वारं तन्निदाघार्कदुःसहम् । हृत्वा' प्राणान् सहस्रस्य शूलमेति पुनः करम् ।।६।। यस्यार्थ कुर्वतां मन्त्रमस्माकं वर्तते समा । रात्रावपि न विन्दामो निद्रा चिन्तासमाकुलाः ॥७॥ हरीणामन्वयो येन जायमानेन पुष्कलः । नीतः परममुद्योतं लोकस्तिग्मांशुना यथा ॥८॥ खेचरैरपि दुःसाध्यो लवणार्णवसंज्ञकः । सुतो यस्य कथं शूरं तं विजेतुं भवान् नमः ।। ततो जगाद शत्रुघ्नः किमत्र बहुभाषितैः । प्रयच्छ मथुरां मह्यं ग्रहीष्यामि ततः स्वयम् ॥१०॥ मधूकमिव कृन्तामि मधुं यदि न संयुगे । ततो दशरथेनाहं पित्रा मानं वहामि नो ॥११॥ शरभः सिंहसङ्घातमिव तस्य बलं यदि । न चूर्णयामि न भ्राता युप्माकमहकं तदा ॥१२॥ नास्मि सुप्रजसः कुक्षी सम्भूतो यदि तं रिपुम् । नयामि दीघनिद्रां न त्वदाशीः कृतपालनः ॥१३॥
अथानन्तर अच्छी तरह प्रीतिको धारण करनेवाले राम और लक्ष्मणने शत्रुघ्नसे कहा कि जो देश तुझे इष्ट हो उसे स्वीकृत कर ॥१॥ क्या तू अयोध्याका आधाभाग लेना चाहता है ? या उत्तम पोदनपुरको ग्रहण करना चाहता है ? या राजगृह नगर चाहता है अथवा मनोहर पौण्ड्रसुन्दर नगरकी इच्छा करता है ? ॥२॥ इस प्रकार राम-लक्ष्मणने उस तेजस्वीके लिए सैकड़ों राजधानियाँ बताई पर वे उसके मनमें स्थान नहीं पा सकी.।।३।। तदनन्तर जब शत्रुघ्नने मथुराकी याचना की तब रामने उससे कहा कि मथुराका स्वामी मधु नामका शत्रु है यह क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है ? ॥४॥ वह मधु रावगका जमाई है, अनेक युद्धोंसे सुशोभित है, और चमरेन्द्रने उसके लिए कभी व्यर्थ नहीं जानेवाला वह शूल रत्न दिया है, कि जो देवोंके द्वारा भी दुर्निवार है, जो ग्रीष्म ऋतुके सूर्यके समान अत्यन्त दुःसह है, और जो हजारोंके प्राण हरकर पुनः उसके हाथमें आ जाता है ॥५-६॥ जिसके लिए मन्त्रणा करते हुए हमलोग चिन्तातुर हो सारी रात निद्राको नहीं प्राप्त होते हैं ।।७। जिस प्रकार सूर्य उदित होता हुआ ही समस्त लोकको परमप्रकाश प्राप्त कराता है उसी प्रकार जिसने उत्पन्न होते ही विशाल हरिवंशको परमप्रकाश प्राप्त कराया था ॥८॥ और जिसका लवणार्णव नामका पुत्र विद्याधरोंके द्वारा भी दुःसाध्य है उस शूरवीरको जीतनेके लिए तू किस प्रकार समर्थ हो सकेगा?
___ तदनन्तर शत्रुघ्नने कहा कि इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? आप तो मुझे मथुरा दे दीजिये मैं उससे स्वयं ले लूँगा ॥१०॥ यदि मैं युद्ध में मधुको मधुके छत्तेके समान नहीं तोड़ डालूँ तो मैं पिता दशरथसे अहंकार नहीं धारण करूँ अर्थात् उनके पुत्र होनेका गर्व छोड़ दूँ ॥११॥ जिस प्रकार अष्टापद सिंहोंके समूहको नष्ट कर देता है उसी प्रकार यदि मैं उसके बलको चूर्ण नहीं कर दूं तो आपका भाई नहीं होऊँ ॥१२॥ आपका आशीर्वाद ही जिसकी रक्षा कर रहा है ऐसा मैं यदि उस शत्रुको दीर्घ निद्रा नहीं प्राप्त करा दूं तो मैं सुप्रजाकी कुक्षिमें उत्पन्न हुआ नहीं कहलाऊँ ।।१३।। इस प्रकार उत्तम तेजका धारक शत्रुघ्न जब पूर्वोक्त प्रतिज्ञाको प्राप्त हुआ
१. कृत्वा म०।
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