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पद्मपुराणे
कदागमसमापन्नान् दृष्ट्वाऽसौ तापसांस्ततः । प्रबोधमुत्तमं प्राप्ताः श्रामण्यं कत्तु मुद्यतः ॥५६॥ वसुपर्वतकश्रुत्या मूढश्रुतिरतस्ततः । तममोहयदेवं च पापकर्मा पुनर्जगौ ।।५७॥ गोत्रक्रमागतो राजन् धर्मोऽयं तव वैदिकः । ततो हरिपतेः पुत्रो यदित्वं तत्तमाचर ॥५८।। नाथ वेदविधिं कृत्वा सुतं न्यस्य निजे पदे । करिष्यसि हितं पश्चात् प्रसादः क्रियतां मम ॥५॥ एवमेतदथाभीष्टा श्रीदामेति प्रकीर्तिता । महिष्यचिन्तयत्यस्य नूनं राज्ञाऽन्यसङ्गता ॥६॥ ज्ञातास्मि येन वैराग्यात् प्रव्रज्यां कत्त मिच्छति । प्रव्रज्येदपि किं नो वा को जानाति मनोगतिम् ॥६१॥ तस्माद्वयापादयाम्येनं विषेणेत्यनुचित्य सा । पुरोहितान्वितं पापा कुलङ्करममारयत् ॥६२।। ततोऽनुध्यातमात्रेण पशुधातेन पापतः। कालप्राप्तावभूतां तो निकुञ्ज शशको वने ॥६३॥ भेकत्वं मूषकत्वं च बहिणत्वं पृदाकुताम् । रुरुत्वं च पुनः प्राप्ती कर्मानिलजवेरिती ॥६॥ पूर्वश्रुतिरतो हस्ती दर्दुरश्चेतरोऽभवत् । तस्याक्रान्तः स पादेन चकारासुविमोचनम् ॥६५।। 'वर्षाभूत्वं पुनः प्राप्तः शुष्के सरसि भक्षितः । काकैः "कुक्कुटता प्राप्तो मारित्वं तु हस्त्यसौ ॥६६।। कुलकरचरो जन्मत्रितयं कुक्कुटोऽभवत् । भक्षितो द्विजपूर्वेण मार्जारेण नृजन्मना ॥६७॥ राजद्विजचरौ मत्स्यशिशुमारत्वमागतौ । बद्धौ जालेन कैवत्तः कुठारेणऽऽहतौ मृतौ ॥६॥ शिशुमारस्तयोरुल्काबपाशतनयोऽभवत् । विनोदो रमणो मत्स्यो द्विजो राजगृहे तयोः ॥६६॥
हुआ ।।५३-५५॥ तदनन्तर उन तापसोंको मिथ्याशास्त्रसे यक्त देखकर राजा कलंकर उत्तम प्रबोधको प्राप्त हो मुनिपद धारण करनेके लिए उद्यत हुआ ॥५६॥
___ अथानन्तर राजा वसु और पर्वतके द्वारा अनुमोदित 'अजैर्यष्टव्यम्' इस श्रुतिसे मोहको प्राप्त हुए पापकर्मा श्रुतिरत नामा पुरोहितने उन्हें मोहमें डालकर इस प्रकार कहा कि हे राजन् ! वैदिक धर्म तुम्हारी वंशपरम्परासे चला रहा है इसलिए यदि तुम राजा हरिपतिके पुत्र हो तो उसी वैदिक धर्मका आचरण करो ॥५७-५८|| हे नाथ ! अभी तो वेदमें बताई हुई विधिके अनुसार कार्य करो फिर पिछली अवस्थामें अपने पद पर पुत्रको स्थापित कर आत्माका हित करना। हे राजन् ! मुझपर प्रसाद करो-प्रसन्न होओ ॥५६।।
___ अथानन्तर राजा कुलकरने 'यह बात ऐसी ही है' यह कह कर पुरोहितकी प्रार्थना स्वीकृत की । तदनन्तर राजाकी श्रीदामा नामकी प्रिय स्त्री थी जो परपुरुषासक्त थी। उसने उक्त घटनाको देखकर विचार किया कि जान पड़ता है इस राजाने मुझे अन्य पुरुषमें आसक्त जान लिया है इसीलिए यह विरक्त हो दीक्षा लेना चाहता है । अथवा यह दीक्षा लेगा या नहीं लेगा इसकी मनकी गतिको कौन जानता है ? मैं तो इसे विष देकर मारती हूँ ऐसा विचार कर उस पापिनीने पुरोहित सहित राजा कुलंकरको मार डाला ।।६०-६२।। तदनन्तर पशुघातका चिन्तवन करने मात्रके पापसे वे दोनों मर कर निकुञ्ज नामक वनमें खरगोश हुए ॥६३।। तदनन्तर कर्मरूपी वायुके वेगसे प्रेरित हो क्रमसे मेंडक, चूहा, मयूर, अजगर और मृग पर्यायको प्राप्त हुए ॥६४॥ तत्पश्चात् अतिरत पुरोहितका जीव हाथी हुआ और राजा कुलंकरका जीव में डक हुआ सो हाथीके पैरसे दबकर मेंडक मृत्युको प्राप्त हुआ ॥६५॥ पुनः सूखे सरोवरमें मेंडक हुआ सो कौओंने उसे खाया। तदनन्तर मुर्गा हुआ और हाथीका जीव मार्जार हुआ ।।६६।। सो मार्जारने मुर्गाका भक्षण किया। इस तरह कुलंकरका जीव तीन भव तक मुर्गा हुआ और पुरोहितका जीव जो मार्जार था वह मनुष्यों में उत्पन्न हुआ सो उसने उस मुर्गाको खाया ॥६७॥ तदनन्तर राजा और पुरोहितके जीव क्रमसे मच्छ और शिशुमार अवस्थाको प्राप्त हुए । सो धीवरोंने जालमें फंसाकर उन्हें पकड़ा तथा कुल्हाड़ोंसे काटा जिससे मरणको प्राप्त हुए ॥६॥ तदनन्तर उन दोनोंमें जो शिशुमार था वह
१. ऽनुध्यान -म०, क० । २. सर्पताम् । ३. कुरुत्वं म० । ४. मण्डूकताम् । ५. कुक्कुटोऽ- म० ।
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