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पद्मपुराणे
भाहावयन् सदः सर्व ततः पद्मो विधान वित् । जगाद परमं धन्यो भरतः सुमहानसौ ॥१५॥ तस्यकस्य मतिः शुद्धा तस्य जन्मार्थसङ्गतम् । विषान्नमिव यस्यक्त्वा राज्यं प्राज्यमास्थितः ॥१६॥ पूज्यता वर्ण्यतां तस्य कथं परमयोगिनः । देवेन्द्रा अपि नो शक्ता यस्य वक्तुं गुणाकरम् ॥१७॥ केकयानन्दनस्यैव प्रारब्धगुणकीर्तनाः । सुखदुःखरसोन्मिश्रा मुहूर्त पार्थिवा स्थिताः ॥१८॥ ततः समुत्थिते पद्म सोद्वगे लचमणे तथा । तथा स्वमास्पदं याता नरेन्द्रा बहुविस्मयाः ।।१६।। सम्प्रधार्य पुनः प्राप्ताः कर्तव्याहितचेतसः । पद्मनाभं 'नमस्कृत्य प्रीत्या वचनमब्रुवन् ॥२०॥ विदुषामज्ञकानां वा प्रसादं कुरु नाथ नः । राज्याभिषेकमन्विच्छ सुरलोकसमद्युतिः ॥२१॥ विदधत्स्वफलत्वं नश्चक्षुषो«दयस्य च । तवाभिषेकसौख्येन भरितस्य नरोत्तम ॥२२॥ बिभ्रत्सप्तगणेश्वयं राजराजो दिने दिने । पादौ नमति यत्रैष तत्र राज्येन किं मम ॥२३॥ प्रतिकूलमिदं वाच्यं न भवद्भिर्मयीहशम् । स्वेच्छाविधानमात्रं हि ननु राज्यमुदाहृतम् ॥२४॥ इत्युक्त जयशब्देन पद्माभमभिनन्द्य ते । गत्वा नारायणं प्रोचुः स चायातो बलान्तिकम् ॥२५॥ प्रावृडारम्भसम्भूतडम्बराम्भोदनिःस्वनाः । ततः समाहता भेर्यः शङ्खशब्दपुरःसराः ॥२६॥ दुन्दुभ्यानकझल्लयंस्तूर्याणि प्रवराणि च । मुमुचुर्नादमुत्तङ्ग वंशादिस्वनसङ्गतम् ॥२७॥ चारुमङ्गलगीतानि नाट्यानि विविधानि च । प्रवृत्तानि मनोज्ञानि यच्छन्ति प्रमदं परम् ॥२८॥
तदनन्तर समस्त सभाको आह्लादित करते हुए विधि-विधानके वेत्ता रामने कहा कि वह भरत परम धन्य तथा अत्यन्त महान् है ।।१५।। एक उसीकी बुद्धि शुद्ध है, और उसीका जन्म सार्थक है कि जो विषमिश्रित अन्नके सभान राज्यका त्याग कर दीक्षाको प्राप्त हुआ है ॥१६॥ जिसके गुणोंकी खानका वर्णन करनेके लिए इन्द्र भी समर्थ नहीं है ऐसे उस परम योगीकी पूज्यताका कैसे वर्णन किया जाय ? ॥१७॥ जिन्होंने भरतके गुणोंका वर्णन करना प्रारब्ध किया था, ऐसे राजा मुहूर्त भर सुख-दुःखके रससे मिश्रित होते हुए स्थित थे ॥१८॥ तदनन्तर उद्वेगसे सहित राम और लक्ष्मण जब उठ कर खड़े हुए तब बहुत भारी आश्चयसे युक्त राजा लोग अपने अपने स्थान पर चले गये ॥१६॥ ___अथानन्तर करने योग्य कार्य में जिनका चित्त लग रहा था ऐसे राजा लोग परस्पर विचार कर पुनः रामके पास आये और नमस्कार कर प्रीति पूर्वक निम्न वचन बोले ॥२०॥ उन्होंने कहा कि हे नाथ ! हम विद्वान हों अथवा मूर्ख ! हमलोगों पर प्रसन्नता कीजिये । आप देवोंके समान कान्तिको धारण करनेवाले हैं अतः राज्याभिषेककी स्वीकृति दीजिये ।।२१॥ हे पुरुषोत्तम ! आप हमारे नेत्रों तथा अभिषेक सम्बन्धी सुखसे भरे हुए हमारे हृदयकी सफलता करो ॥२२॥ यह सुन रामने कहा कि जहाँ सात गुणोंके ऐश्वर्यको धारण करनेवाला राजाओंका राजा लक्ष्मण प्रतिदिन हमारे चरणों में नमस्कार करता है वहाँ हमें राज्यकी क्या आवश्यकता है? ॥२३॥ इसलिए आप लोगोंको मेरे विषयमें इस प्रकारके विरुद्ध वचन नहीं कहना चाहिये क्योंकि इच्छानुसार कार्य करना ही तो राज्य कहलाता है ॥२४॥ कहनेका सार यह है कि आपलोग लक्ष्मणका राज्याभिषेक करो। रामके इस प्रकार कहने पर सबलोग जयध्वनिके साथ रामका अभिनन्दन कर लक्ष्मणके पास पहुंचे और नमस्कार कर राज्याभिषेक स्वीकृत करनेकी बात बोले। इसके उत्तरमें लक्ष्मण श्रीरामके समीप आये ॥२५॥ ___तदनन्तर वर्षाऋतुके प्रारम्भमें एकत्रित घनघटाके समान जिनका विशाल शब्द था तथा जिनके प्रारम्भमें शङ्खोंके शब्द हो रहे थे ऐसी भेरियाँ बजाई गई ।।२६।। दुन्दुभि, ढक्का, झालर, और उत्तमोत्तम सूर्य, बाँसुरी आदिके शब्दोंसे सहित उन शब्द छोड़ रहे थे ।।२७।। मङ्गलमय
१. सुरलोकसमुद्युति म० । २. विदधत्सफलत्वं नश्च -म० । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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