________________
अष्टाशीतितमं पर्व
भरतेन समं वीरा निष्क्रान्ता ये महानृपाः । निःस्पृहा स्वशरीरेऽपि प्रव्रज्यां समुपागताः ॥ १॥ प्राप्तानां दुर्लभं मागं तेषां सुपरमात्मनाम् । कीर्त्तयिष्यामि केषाञ्चिनामानि श्रृणु पार्थिव ॥२॥ सिद्धार्थः सिद्धसाध्यार्थी रतिदो रतिवर्द्धनः । अम्बुवाहरथो जाम्बूनदः शल्यः शशाङ्कपात् ॥३॥ विरसो नन्दनो नन्द भानन्दः सुमतिः सुधीः । सदाश्रयो महाबुद्धिः सूर्यारो जनवल्लभः ॥ ४ ॥ इन्द्रध्वजः श्रुतधरः सुचन्द्रः पृथिवीधरः । अलकः सुमतिः क्रोधः कुन्दरः सत्यवान्हरिः ||५||| सुमित्रा धर्ममित्रायः सम्पूर्णेन्दुः प्रभाकरः । नघुषः सुन्दनः शान्तिः प्रियधर्मादयस्तथा ॥ ६ ॥ विशुद्धकुलसम्भूताः सदाचारपरायणाः । सहस्राधिकसंख्याना भुवनाख्यातचेष्टिताः ॥७॥ एते हस्त्यश्वपादातं प्रवालस्वर्णमौक्तिकम् । अन्तःपुरं च राज्यं व बहुजीर्णंतृणं यथा ॥८॥ महाव्रतधराः शान्ता नानालब्धिसमागताः । आत्मध्यानानुरूपेण यथायोग्यं पदं श्रिताः ॥६॥ निष्क्रान्ते भरते तस्मिन् भरतोपमचेष्टिते । मेने शून्यकमात्मानं लक्ष्मणः स्मृततद्गुणः ॥१०॥ शोकाकुलितचेतस्को विषादं परमं भजन् । सूत्कारमुखरः क्लान्तलोचनेन्दीवरद्युतिः ॥ ११ ॥ विराधितभुजस्तम्भकृतावष्टम्भविग्रहः । तथापि प्रज्वलन् लक्ष्या मन्दवर्णमवोचत ॥ १२ ॥ अधुना वर्त्तते वासौ भरतो गुणभूषणः । तरुणेन सता येन शरीरे प्रीतिरुज्झिता ॥१३॥ इष्टं बन्धुजनं त्यक्त्वा राज्यं च त्रिदशोपमम् । सिद्धार्थी स कथं भेजे जैनधर्मं सुदुर्धरम् ॥ १४ ॥
अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन! अपने शरीर में भी स्पृहा नहीं रखनेवाले जो बड़े-बड़े वीर राजा भरतके साथ दीक्षाको प्राप्त हुए तथा अत्यन्त दुर्लभ मार्गको प्राप्त हो जिन्होंने परमात्म पद प्राप्त किया था ऐसे उन राजाओं में से कुछूके नाम कहता हूँ सो सुनो ||१२|| जिसके समस्त साध्य पदार्थ सिद्ध हो गये थे ऐसा सिद्धार्थ, रतिको देनेवाला रतिवर्द्धन, मेघरथ, जाम्बूनद, शल्य, शशाङ्कपाद् (चन्द्रकिरण ), विरस, नन्दन, नन्द, आनन्द, सुमति, सुधी, सदाश्रय, महाबुद्धि, सूर्यार, जनवल्लभ, इन्द्रध्वज, श्रुतधर, सुचन्द्र, पृथिवीधर, अलक, सुमति, क्रोध, कुन्दर, सत्ववान्, हरि, सुमित्र, धर्ममित्राय, पूर्णचन्द्र, प्रभाकर, नघुष, सुन्दन, शान्ति और प्रियधर्म आदि || ३६ || ये सभी राजा विशुद्ध कुलमें उत्पन्न हुए थे, सदाचार में तत्पर थे, हजारसे अधिक संख्या के धारक थे और संसार में इनकी चेष्टाएँ प्रसिद्ध थीं ||७|| ये सब हाथी, घोड़े, पैदल सैनिक, मूँगा, सोना, मोती, अन्तःपुर और राज्यको जीर्ण-तृणके समान छोड़कर महाव्रतधारी हुए थे। सभी शान्तचित्त एवं नाना ऋद्धियोंसे युक्त थे और अपने-अपने ध्यान के अनुरूप यथायोग्य पदको प्राप्त हुए थे |- ||
भरत चक्रबर्तीके समान चेष्टाओंके धारक भरतके दीक्षा ले लेने पर उसके गुणोंका स्मरण करनेवाले लक्ष्मण अपने आपको सूना मानने लगे ॥१०॥ यद्यपि उनका चित्त शोकसे आकुलित हो रहा था, परम विषादको प्राप्त थे, उनके मुखसे सू-सू शब्द निकल रहा था, जिनके नेत्र - रूपी नील-कमलोंकी कान्ति म्लान हो गई थी और उनका शरीर विराधितकी भुजारूपी खम्भों के आश्रय स्थित था तथापि वे लक्ष्मीसे देदीप्यमान होते हुए धीरे-धीरे बोले कि ॥११- १२॥ गुणरूपी आभूषणोंको धारण करनेवाला वह भरत इस समय कहाँ है ? जिसने तरुण होने पर भी शरीर से प्रीति छोड़ दी है ॥१३॥ इष्ट बन्धुजनों को तथा देवोंके समान राज्यको छोड़कर सिद्ध होनेकी इच्छा रखता हुआ वह अत्यन्त कठिन जैनधर्मको कैसे धारण कर गया ? ||१४||
१. नहुषः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org