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पञ्चाशीतितमं पर्व
ते भग्ननिश्चयाः क्षुद्राः स्वेच्छाविरचितव्रताः । वल्भिनः फलमूलायेर्वालवृत्तिमुपाश्रिताः ॥४३॥ तेषां मध्ये महामानो मरीचिरिति यो ह्यसौ । परिव्राज्यमयचके कापायी सकषायधीः ॥४४॥ सुप्रभस्य विनीतायां सूर्यचन्द्रोदयौ सुतौ । प्रहादनाख्यमहिषीकुक्षिभूमिमहामणी ॥४५॥ स्वामिना सह निष्क्रान्ती प्रथितौ सत्रविष्टपे। भग्नौ श्रामण्यतोऽत्यन्तप्रीतौ तं शरणं गतौ ॥४६॥ मरीचिशिष्ययोः कूटप्रतापव्रतमानिनोः । तयोः शिष्यगणो जातः परिबाङ्गदितो महान् ॥४७॥ कुधर्माचरणाद् भ्रान्तौ संसारं तौ चतुर्गतिम् । सहितौ पूरिता क्षोणी ययोस्त्यक्तकलेवरैः ॥४८॥ ततश्चन्द्रोदयः कर्मवशानागाभिधे पुरे । राज्ञो हरिपतेः पुत्रो मनोलूतासमुद्भवः ॥४६॥ जातः कुलंकराभिख्यः प्राप्तश्च नृपतां पराम् । पूर्वस्नेहानुबन्धेन भावितेन भवान् बहून् ॥५०॥ सूर्योदयः पुरेऽत्रैव ख्यातः श्रुतिरतः श्रुती । विश्वाङ्केनाग्निकुण्डायां जातोऽभूत्तत्पुरोहितः ॥५१॥ कुलङ्करोऽन्यदा गोत्रसन्तत्या कृतसेवनान् । तापसान् सेवितुं गच्छन्नपश्यन्मुनिपुङ्गवम् ।।५२। अभिनन्दितसंज्ञेन तेनाऽसौ नतिमागतः । जगदेऽवधिनेत्रेण सर्वलोकहितैषिणा ॥५३॥ यत्र त्वं प्रस्थितस्तत्र 'तव चेभ्यः पितामहः । तापसः सर्पतां प्राप्तः काष्टमध्येऽवतिष्टते ॥५४॥ काठे विपाट्यमाने तं तापसेन गतो भवान् । रक्षिस्यति५ गतस्यास्य तच्च सर्व तथाऽभवत् ॥५५॥
उन क्षुद्र पुरुषोंने अपना निश्चय तोड़ दिया, स्वेच्छानुसार नाना प्रकार के व्रत धारण कर लिये और वे अज्ञानी जैसी चेष्टाको प्राप्त हो फल-मूल आदिका भोजन करने लगे॥४३।।
उन भ्रष्ट राजाओंके बीच महामानी, कषायले-गेरूसे रँगे वस्त्रोंको धारण करनेवाला तथा कषाय युक्त बुद्धिसे युक्त जो मरीचि नामका साधु था उसने परिव्राजकका मत प्रचलित विया ॥४४।। इसी विनीता नगरी में एक सुप्रभ नामका राजा था उसकी प्रह्लादना नामकी स्त्रीकी कुक्षिरूपी भूमिसे उत्पन्न हुए महामणियोंके समान सूर्योदय और चन्द्रोदय नामके दो पुत्र थे॥४५॥ ये दोनों पुत्र समस्त संसारमें प्रसिद्ध थे। उन्होंने भगवान आदिनाथके साथ ही दीक्षा धारण की थी परन्तु मुनिपदसे भ्रष्ट होकर वे पारस्परिक तीव्र प्रीतिके कारण अन्तमें मरीचिको शरणमें चले गये ॥४६।। मायामयी तपश्चरण और व्रतको धारण करनेवाले मरीचिके उन दोनों शिष्योंके अनेक शिष्य हो गये जो परिबाट नामसे प्रसिद्ध हुए ॥४७॥ मिथ्याधर्मका आचरण करनेसे वे दोनों चतुर्गति रूप संसार में साथ-साथ भ्रमण करते रहे। उन दोनों भाइयोंने पूर्वभवों में जो शरीर छोड़े थे उनसे समस्त पृथिवी भर गई थी ॥४८॥
तदनन्तर चन्द्रोदयका जीव कर्मके वशीभूत हो नाग नामक नगरमें राजा हरिपतिके मनोलूता नामक रानीसे कुलंकर नामक पुत्र हुआ जो आगे चलकर उत्तम राज्यको प्राप्त हुआ।
और सूर्योदयका जीव इसी नगरमें विश्वाङ्क नामक ब्राह्मगके अग्निकुण्डा नामकी स्त्रीसे श्रुतिरत नामका विद्वान् पुत्र हुआ। अनेक भवों में वृद्धिको प्राप्त हुए पूर्वस्नेहके संस्कारसे अतिरत राजा कुलंकरका पुरोहित हुआ ॥४६-५१॥ किसी समय राजा कुलंकर गोत्रपरम्परासे जिनकी सेवा होती आ रही थी ऐसे तपस्वियोंकी सेवा करनेके लिए जा रहा था सो मार्गमें उसने किन्हीं दिगम्बर मुनिराजके दर्शन किये ।।५२।। उन मुनिराजका नाम अभिनन्दित था, वे अवधिज्ञानरूपी नेत्रसे सहित थे तथा सब लोगांका हित चाहनेवाले थे। जब राजा कुलंकरने उन्हें नमस्कार किया तब उन्होंने कहा कि हे राजन ! तू जहाँ जा रहा है वहाँ तेरा सम्पन्न पितामह जो तापस हो गया था मरकर साँप हुआ है और काष्टके मध्यमें विद्यमान है। एक तापस उस काष्ठको चीर रहा है सो तू जाकर उसकी रक्षा करेगा। जब कुलंकर वहाँ गया तब मुनिराजके कहे अनुसार ही सब
१. वल्लिनः म०। २. श्रामयतोऽ-म। ३. विश्वाहेना -म०, क०। ४. तापसेभ्यः म०। तव च + इभ्यः। ५. रक्षिष्यसि म०, ज० ।
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