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षडशीतितमं पर्व
साधोस्तद्वचनं श्रुत्वा सुपवित्रं तमोऽपहम् । संसारसागरे घोरे नानादुःखनिवेदनम् ॥१॥ विस्मयं परमं प्राप्ता भरतानुभवोद्भवम् । पुस्तकर्मगतैवाऽऽसीत् सा सभा चेष्टितोज्झिता ॥२॥ भरतोऽथ समुत्थाय प्रचलद्धारकुण्डलः । प्रतापप्रथितः श्रीमान् देवेन्द्रसमविभ्रमः ॥३॥ वहन् संवेगमुत्तुङ्गं प्रहकायो महामनाः । रभसान्वितमासाद्य 'बद्धपाण्यटजकुमलः ॥४॥ जानुसम्पीडितक्षोणिः प्रणिपत्य मुनीश्वरम् । संसारवासखिन्नोऽसौ जगाद सुमनोहरम् ॥५॥ नाथ योनिसहस्रेषु सङ्कटेषु चिरं भ्रमन् । महाध्वश्रमखिन्नोऽहं यच्छ मे मुक्तिकारणम् ॥६॥ . उद्यमानाय सम्भूतिमरणोग्रतरङ्गया। मह्यं संसृतिनद्या त्वं हस्तालम्बकरो भव ॥७॥ इत्युक्त्वा त्यक्तनिःशेषग्रन्थपर्यङ्कबन्धगः । स्वकरेणाऽकरोल्लुचं महासत्वसमन्वितः ॥८॥ परं सम्यक्त्वमासाद्य महावतपरिग्रहः । दीक्षितो भरतो जातस्तरक्षणेन मुनिः परः ॥६॥ साधु साध्विति देवानामन्तरिक्षेऽभवत् स्वनः । पेतुः पुष्पाणि दिव्यानि भरते मुनितामिते ।।१०॥ सहस्रमधिकं राज्ञां भरतस्यानुरागतः । क्रमागतां श्रियं त्यक्त्वा श्रामण्यं समशिश्रियत् ॥११॥ अनुग्रशक्तयः केचिन्नमस्कृत्य मुनि जनाः । उपासाञ्चक्रिरे धर्म विधिनागारसङ्गतम् ॥१२॥ सम्भ्रान्ता केकया वाष्पदुर्दिनाऽऽकुलचेतना । धावन्ती पतिता भूमौ व्यामोहं च समागता ॥१३॥
__ अथानन्तर जो अत्यन्त पवित्र थे, अज्ञानरूपी अन्धकारको नष्ट करनेवाले थे, संसाररूपी घोर सागरके नाना दुःखोंका निरूपण करनेवाले थे और भरतके पूर्वभवोंका वर्णन करनेवाले थे ऐसे महामुनि श्री देशभूषण केवलीके उक्त वचन सुन कर वह समस्त सभा चित्रलिखितके समान निश्चल हो गई ॥१-२॥ तदनन्तर जिनके हार और कुण्डल हिल रहे थे, जो प्रतापसे प्रसिद्ध थे, श्रीमान् थे, इन्द्रके समान विभ्रमको धारण करनेवाले थे, अत्यधिक संवेगके धारक थे, जिनका शरीर नम्रीभूत था, मन उदार था, जिन्होंने हस्तरूपी कमलकी बोड़ियोंको बाँध रक्खा था और जो संसार सम्बन्धी निवाससे अत्यन्त खिन्न थे ऐसे भरतने पृथिवी पर घुटने टेक कर मुनिराज को नमस्कार कर इस प्रकार के अत्यन्त मनोहारी वचन कहे ॥३-५॥ कि हे नाथ ! मैं संकटपूर्ण हजारों योनियों में चिरकालसे भ्रमण करता हुआ मार्गके महाश्रमसे खिन्न हो चुका हूँ अतः मुझे मोक्षका कारण जो तपश्चरण है वह दीजिये ॥६॥ हे भगवन् ! मैं जन्म-मरण रूपी ऊँची लहरोंसे यक्त संसाररूपी नदीमें चिरकालसे बहता चला आ रहा हूँ सो आप मुझे हाथका सहारा दीजिये ॥७॥ इस प्रकार कह कर भरत समस्त परिग्रहका परित्याग कर पर्यङ्कासनसे स्थित हो गये तथा महाधैर्य से युक्त हो उन्होंने अपने हाथसे केश लोंच कर डाले ॥८।। इस प्रकार परम सम्यक्त्वको पाकर महाव्रतको धारण करनेवाले भरत तत्क्षणमें दीक्षित हो उत्कृष्ट मुनि हो गये ॥६॥ उस समय भरतके मुनि अवस्थाको प्राप्त होनेपर आकाश में देवोंका धन्य धन्य यह शब्द हुआ तथा दिव्य पुष्पोंकी वर्षा हुई ॥१०॥ भरतके अनुरागसे प्रेरित हो कुछ अधिक एक हजार राजाओंने क्रमागत राज्यलक्ष्मीका परित्याग कर मुनिदीक्षा धारण की ।।११॥ जिनकी शक्ति हीन थी ऐसे कितने ही लोगोंने मुनिराजको नमस्कार कर विधिपूर्वक गृहस्थ धर्म धारण किया ।।१२॥ जो निरन्तर अश्रुओंकी वर्षा कर रही थी, तथा जिसकी चेतना अत्यन्त आकुल थी ऐसी भरतकी माता केकया घबड़ा कर उनके पीछे-पीछे दौड़ती जा रही थी सो बीच में ही पृथिवी
१. बद्धः पाण्यज -म० । २. -सन्नोऽहं ख०, ज० । ३. नद्यास्त्वं म०, ज० । ४. हस्तलम्ब -म० ।
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