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षडशीतितमं पर्व
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सुतप्रीतिभराक्रान्ता ततोऽसौ निश्चलानिका । गोशीर्षादिपयासेकैरपि संज्ञामुपैति न ॥१४॥ व्यक्तचेतनतां प्राप्य चिराय स्वयमेव सा । अरोदीत् करुणं धेनुर्वत्सेनेत्र वियोजिता ॥१५॥ हा मे वत्स मनोहाद सुविनीत गुणाकर । क्व प्रयातोऽसि वचनं प्रयच्छाङ्गानि धारय ॥१६॥ स्वया पुत्रक संत्यक्ता दुःखसागरवर्तिनी । कथं स्थास्यामि शोकाता हा किमेतदनुष्ठितम् ॥१७॥ कुर्वन्तीति समाक्रन्दं हलिना चक्रिणा च सा । आनीयत समाश्वासं वचनैरतिसुन्दरैः ॥१८॥ पुण्यवान् भरतो विद्वानम्ब शोकं परित्यज । आवां ननु न किं पुत्रौ तवाज्ञाकरणोद्यतौ ॥१६॥ इति कातरतां कृच्छ्रात्याजिता शान्तमानसा । सपत्नीवाक्यजातेश्च सा बभूव विशोकिका ॥२०॥ विबुद्धा चाकरोसिन्दामात्मनः शुद्धमानसा। धिक स्त्रीकलेवरमिदं बहुदोषपरिप्लुतम् ॥२१॥ अत्यन्ताशुचिबीभत्सं नगरीनिझरोपमम् । करोमि कर्म तद् येन विमुच्ये पापकर्मतः ॥२२॥ पूर्वमेव जिनोक्तेन धर्मेणाऽसौ सुभाविता । महासंवेगसम्पन्ना सितंकवसनान्विता ॥२३॥ सकाशे पृथिवीमत्याः सह नारीशस्विभिः । दीक्षां जग्राह सम्यक्त्वं धारयन्ती सुनिर्मलम् ॥२४॥
उपजातिः त्यक्त्वा समस्तं गृहिधर्मजालं प्राप्याऽऽयिकाधर्ममनुत्तमं सा। रराज मुक्ता घनसङ्गमेन शशाङ्कलेखेव कलङ्कहीना ॥२५॥ इतोऽभवद्भिक्षुगणः सुतेजास्तथाऽऽर्यिकाणां प्रचयोऽन्यतोऽभूत् । तदा सदो भूरिसरोजयुक्तसरः समं तद्भवति स्म कान्तम् ॥२६॥
पर गिर कर मूर्छित हो गई थी ॥१३॥ तदनन्तर जो पुत्रकी प्रीतिके भारसे युक्त थी, तथा जिसका शरीर निश्चल पड़ा हुआ था ऐसी वह केकया गोशीर्ष आदि चन्दनके जलके सींचने पर भी चेतनाको प्राप्त नहीं हो रही थी ॥१४॥ वहुत समय बाद जब वह स्वयं चेतनाको प्राप्त हुई तब बछड़ेसे रहित गायके समान करुण रोदन करने लगी ॥१५॥ वह कहने लगी कि हाय मेरे वत्स ! तू मनको आह्लादित करनेवाला था, अत्यन्त विनीत था और गुणोंको खान था । अब तू कहाँ चला गया ? उत्तर दे और मेरे अङ्गोंको धारण कर ॥१६॥ हाय पुत्रक! तेरे द्वारा छोड़ी हुई मैं दुःखरूपी सागरमें निमग्न हो शोकसे पीड़ित होती हुई कैसे रहूँगी ? यह तूने क्या किया ? ॥१७|| इस प्रकार विलाप करती हुई भरतकी माताको राम और लक्ष्मणने अत्यन्त सुन्दर वचनोंसे सन्तोष प्राप्त कराया ॥१८।। उन्होंने कहा-हे माता ! भरत बड़ा पुण्यवान् और विद्वान् है, तू शोक छोड़ । क्या हम दोनों तेरे आज्ञाकारी पुत्र नहीं हैं ? ॥१६॥ इस प्रकार जिससे बड़े भयसे उत्पन्न कातरता छुड़ाई गई थी तथा जिसका हृदय अत्यन्त शुद्ध था, ऐसी वह केकया सपत्नीजनोंके वचनोंसे शोकरहित हो गई थी ॥२०॥ वह शुद्धहृदया जब सचेत हुई तब अपने आपकी निन्दा करने लगी। वह कहने लगी कि स्त्रीके इस शरीरको धिक्कार हो जो अनेक दोषोंसे आच्छादित है ॥२१॥ अत्यन्त अपवित्र है, ग्लानिपूर्ण है, नगरी निर्भर अर्थात् गटरके प्रवाहके समान है । अब तो मैं वह कार्य करूँगी जिसके द्वारा पापकर्मसे मुक्त हो जाऊँगी॥२२॥वह जिनेन्द्र प्रणीत धर्मसे तो पहले ही प्रभावित थी, इसलिए महान वैराग्यसे प्रयुक्त हो एक सफेद साड़ीसे युक्त हो गई ॥२३॥ तदनन्तर निर्मल सम्यक्त्वको धारण करती हुई उसने तीन सौ खियोंके साथ साथ पृथिवीमती नामक आर्याके पास दीक्षा ग्रहण कर ली ॥२४॥ समस्त गृहस्थधर्मके जालको छोड़ कर तथा आर्यिकाका उत्कृष्ट धर्म धारण कर वह केकया मेघके संगमसे रहित निष्कलंक चन्द्रमाकी रेखाके समान सुशोभित हो रही थी ॥२५॥ उस समय देशभूषण मुनिराजकी सभामें एक ओर तो उत्तम तेजको धारण करनेवाले मुनियोंका समूह विद्यमान था और दूसरी ओर १. युक्तं सदः समं म० ।
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