________________
पञ्चाशीतितमं पर्व
तो मृदुमतिस्तस्मात् पुण्यराशिपरिक्षये । मायावशेषकर्माक्तो जम्बूद्वीपं समागतः ॥ १५० ॥ उत्तुङ्गशिखरो नाम्ना निकुञ्ज इति भूधरः । अटव्यां तस्य शलक्यां गहनायां विशेषतः ॥ १५१ ॥ अयं जीमूतसंघातसंकाशो वारणोऽभवत् । क्षुब्धार्णवसमस्वानो गतिनिर्जितमारुतः ॥ १५२ ॥ अत्यन्तभैरवाकारः कोपकालेऽभिमानवान् । शशाङ्काकृतिसद्वंष्ट्रो दन्तिराजगुणान्वितः ॥ १५३ ॥ विजयादिमहानागगोत्रजः परमद्युतिः । द्विषभैरावत्तस्येव स्वच्छन्दकृतविग्रहः ॥ १५४॥ सिंहव्याघ्रमहावृक्षगण्डशैलविनाशकृत् । भासतां मानुषास्तावद्दुर्ब्रहः खेचरैरपि ॥ १५५॥ समस्तश्वापदासं कुर्वन्न। मोदमात्रतः । रमते गिरिकुन्जेषु नानापह्नवहारिषु ॥ १५६ ॥ अक्षोभ्ये विमले नानाकुसुमैरुपशोभिते । मानसे सरसि क्रीडां कुरुतेऽनुचरान्वितः ॥ १५७॥ विलासं सेवते सारं कैलासे सुलभेक्षिते । मन्दाकिन्याः मनोज्ञेषु हृदेषु च परः सुखी ॥ १५८ ॥ अन्येषु च नगारण्प्रदेशेष्वतिहारिषु । भजते क्रीडनं कान्तं बान्धवानां महोदयः ॥ १५३ ॥ अनुवृत्तिप्रसक्तानां करेणूनां स भूरिभिः । सहस्रैः सङ्गतः सौख्यं भजते यूथपोचितम् ॥ १६०॥ इतस्ततश्च विचरन् द्विरदौघसमावृतः । शोभते पक्षिसङ्घातैर्विनतानन्दनो यथा ॥ १६१ ॥ घनाघनघनस्वानो दाननिर्भर पर्वतः । लङ्केन्द्रेणेचितः सोऽयमासीद्वारणसत्तमः ॥ १६२॥ विद्यापराक्रमोग्रेण तेनायं साधितोऽभवत् । त्रिलोककण्टकाभिख्यां प्रापितश्चारुलक्षणः ॥ १६३॥
युक्त तथा सुखरूपी सागर में निमग्न रहनेवाले वे दोनों देव अपने पुण्योदय से अनेक सागरपर्यन्त उस स्वर्ग में क्रीड़ा करते रहे ॥ १४६ ॥
१४७
तदनन्तर मृदुमतिका जीव, पुण्यराशिके क्षीण होने पर वहाँसे च्युत हो मायाचार के दोषसे दूषित होनेके कारण जम्बूद्वीपमें आया ॥ १५० ॥ जम्बूद्वीपमें ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सहित निकुञ्ज नामका एक पर्वत है उस पर अत्यन्त सघन शल्लकी नामक वन है ॥ १५१ ॥ उसी वनमें यह मेघ-समूह के समान हाथी हुआ है । इसका शब्द क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रके समान है, इसने अपनी गति से वायुको जीत लिया है, क्रोधके समय इसका आकार अत्यन्त भयंकर हो जाता है, यह महा अभिमानी है, इसकी दाँढ़ें चन्द्रमाके समान उज्ज्वल हैं। यह गजराजके गुणोंसे सहित है, विजय आदि महागजराजोंके वंशमें उत्पन्न हुआ है, परम दीप्तिको धारण करनेवाला है, मानो ऐरावत हाथीसे द्वेष ही रखता है, स्वेच्छानुसार युद्ध करनेवाला है, सिंह व्याघ्र बड़े-बड़े वृक्ष तथा छोड़ी मोटी अनेक गोल चट्टानोंका विनाश करने वाला है, मनुष्योंकी बात जाने दो विद्याधरोंके द्वारा भी इसका पकड़ा जाना सरल नहीं है, यह अपनी गन्धमात्रसे समस्त वन्य पशुओं को भय उत्पन्न करता है तथा नाना प्रकार के पल्लवोंसे युक्त पहाड़ी निकुञ्जों में क्रीड़ा करता रहता है । ||१५२-१५६॥ जिसे कोई क्षोभित नहीं कर सकता तथा जो नाना प्रकार के फूलोंसे सुशोभित है ऐसे मानस सरोवर में यह अपने अनुयायियों के साथ क्रीड़ा करता है || १५७|| यह अनायास
में आये हुए कैलास पर्वत पर तथा गङ्गा नदीके मनोहर हृदोंमें अत्यन्त सुखी होता हुआ श्रेष्ठ शोभाको प्राप्त होता है || १५ || अपने बन्धुजनोंके महाभ्युदयको बढ़ानेवाला यह हाथी इनके सिवाय अत्यन्त मनोहर पहाड़ी वन प्रदेशोंमें सुन्दर कोड़ा करता है || १५६ ॥ अनुकूल आचरण करने में तत्पर रहनेवाली हजारों हथिनियों के साथ मिलकर यह यूथपतिके योग्य सुख का उपभोग करता है ॥ १६० ॥ हाथियों के समूहसे घिरा हुआ यह हाथी जब यहाँ-वहाँ विचरण करता है तब पक्षियोंके समूह से आवृत गरुड़के समान सुशोभित होता है ॥१६१ ॥
जिसकी गर्जना मेघगर्जनाके समान सघन है तथा जो दानरूप झरनोंके निकलनेके लिए मानो पर्वत ही है ऐसा यह उत्तम गजराज लंकाके धनी रावणके द्वारा देखा गया अर्थात् रावणने इसे देखा ॥१६२॥ तथा विद्या और पराक्रमसे उग्र रावणने इसे वशीभूत किया एवं सुन्दर-सुन्दर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org