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पञ्चाशीतितमं पर्व
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प्रविष्टो भवनं किञ्चिजलं पातुमयाचत । अददान्माहनी तस्मै जलं निपतदश्रुका ॥१२२॥ सुशीतलाम्बुतृप्तात्मा पप्रच्छासौ कुतस्त्वया । रुद्यते करुणायुक्त इत्युक्ते माहनी जगौ ॥१२३।। भद्र त्वदाकृतिर्बालो मया पतिसमेतया। करुणोज्झितया गेहात् पुत्रको हा निराकृतः ॥१२॥ स त्वया भ्राम्यता देशे यदि स्यादीक्षितः क्वचित् । नीलोत्पलप्रतीकाशस्ततो वेदय तद्गतम् ॥१२५।। ततोऽसावश्रुमानूचे सवित्रि रुदितं त्यज । समाश्वसिहि सोऽहं ते चिरदुर्लचयकः सुतः ॥१२६।। शकुनाग्निमुखेनामा पुत्रप्राप्तिमहोत्सबम् । परिप्राप्ता सुखं तस्थौ तत्क्षणप्रसूतस्तनी ॥१२॥ तेजस्वी सुन्दरो धीमानानाशास्त्रविशारदः । सर्वस्त्रीहङ्मनोहारी धूर्तानां मस्तके स्थितः ॥२८॥ दुरोदरे सदा जेता सुविदग्धः कलालयः । कामोपभोगसक्तात्मा रेमे मृदुमतिः पुरे ॥१२॥ वसन्तंडमरा नाम गणिकानामनुत्तमा । द्वितीया रमणाचारे तस्याभूत् परमेप्सिता ॥१३०॥ पितरौ बन्धुभिः सार्द्ध दारिद्रयात्तेन मोचितौ । राजलीला परिपातौ लब्धसर्वसमीहितौ ॥१३॥ कुण्डलाद्यैरलङ्कारैः पिताभूदतिभासुरः । नानाकार्यगणव्यग्रा माता काञ्चयादिमण्डिता ॥१३२॥ शशाङ्कनगरे राजगृहं चौर्यरतोऽन्यदा । विष्टो मृदुमतिः शब्दमशृणोमान्दिवर्द्धनम् १३३॥ शशाङ्कमुखसंज्ञस्य गुरोश्चरणमूलतः । मयाद्य परमो धर्मः श्रुतः शिवसुखप्रदः ॥१३४॥
विषया विषवहेवि परिणामे सुदारुणाः । तस्माद्भजाम्यहं दीक्षां न शोकं कर्त महसि ॥१३५॥ पोदनपुरमें आया ॥१२१॥ वहाँ एक ब्राह्मणके घरमें प्रविष्ट हो उसने पीने के लिए जल माँगा सो ब्राह्मणीने उसे जल दिया। जल देते समय उस ब्राह्मणीके नेत्रोंसे टप-टप कर आंसू नीचे पड़ रहे थे ॥१२२।।अत्यन्त शीतल जलसे जिसकी आत्मा संतुष्ट हो गई थी ऐसे उस मृदुमतिने पूछा कि हे दयावति ! तू इस तरह क्यों रो रही है ? उसके इस प्रकार कहने पर ब्राह्मणीने कहा कि ॥१२३।। हे भद्र ! मुझने निर्दया हो अपने पति के साथ मिलकर तेरे ही समान आकृतिवाले अपने छोटेसे पुत्रको बड़े दुःखकी बात है कि घरसे निकाल दिया था ॥१२४॥ सो अनेक देशोंमें घूमते हुए तूने यदि कहीं उसे देखा हो तो उसका पता बता, वह नीलकमलके समान श्यामवर्ण था ॥१२५॥ तदनन्तर अश्रु छोड़ते हुए उसने कहा कि हे माता ! सेना छोड़, धैर्य धारण कर, वह मैं ही तेरा पुत्र हूँ जो चिरकाल बाद सामने आया हूँ ॥१२६।। शकुना ब्राह्मणी, अपने अग्निमुख नामक पतिके साथ पुत्र प्राप्तिके महोत्सवको प्राप्त हो सुखसे रहने लगी और उसके स्तनोंसे दूध भरने लगा ॥१२७|| मृदुमति, अत्यन्त तेजस्वी था, सुन्दर था, बुद्धिमान था, नाना शास्त्रोंमें निपुण था, सर्व स्त्रियोंके नेत्र और मनको हरनेवाला था, धूतों के मस्तकपर स्थित था अर्थात् उनमें शिरोमणि था ॥१२८॥ वह जुआमें सदा जीतता था, अत्यन्त चतुर था, कलाओंका घर था, और कामोपभोगमें सदा आसक्त रहता था। इस तरह वह नगरमें सदा क्रीड़ा करता रहता था ॥१२६॥ उस पोदनपुर नगरमें एक वसन्तडमरा नामकी वेश्या, समस्त वेश्याओंमें उत्तम थी। जो कामभोगके विषयमें उसकी अत्यन्त इष्ट स्त्री थी ॥१३०॥ उसने अपने मातापिताको अन्य बन्धुजनों के साथ-साथ दरिद्रतासे मुक्त कर दिया था जिससे वे समस्त इच्छित पदार्थोंको प्राप्त कर राजा-रानी जैसी लीलाको प्राप्त हो रहे थे ।।१३१॥ उसका पिता कुण्डल आदि अलंकारोंसे अत्यन्त देदीप्यमान था तथा माता मेखला आदि अलंकारोंसे युक्त हो नाना कार्यकलापमें सदा व्यग्र रहती थी ।।१३२।। एक दिन वह मृदुमति चोरी करनेके लिए शशाकुनामा नगरके राजमहलमें घुसा । वहाँका राजा नन्दिवर्धन विरक्त हो रानीसे कह रहा था सो उसे उसने सुना था ॥१३३॥ उसने कहा कि आज मैने शशाङ्कमुख नामक गुरुके चरणमूलमें मोक्ष सुखका देनेवाला उत्तम धमें सुना है ॥१३४॥ हे देवि! ये विषय विषके समान अत्यन्त दारुण हैं
१. करुणायुक्तं म०, करुणायुक्त इत्युक्ते इति पदच्छेदः । २. सवितृ म०। ३. वसन्तसमये म० । ४. परमेप्सिता म० । ५. नन्दिवर्धनम् म० । १६-३ For Private & Personal Use Only
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