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पञ्चाशीतितम पर्व
श्रीधरस्य मुनीन्द्रस्य वन्दनार्थ स्वरान्वितः । सोपानेऽवतरन्दष्टः सोऽहिना तनुमत्यजत् ॥१५॥ माहेन्द्रस्वर्गमारूढश्च्युतो द्वीपे च पुष्करे । चन्द्रादित्यपुरे जातः प्रकाशयशसः सुतः ॥१६॥ माताऽस्य माधवीत्यासीत् स जगद्युतिसंज्ञितः। राजलक्ष्मी परिप्राप्तः परमा यौवनोदये ॥१७॥ संसारात् परमं भीरुरसौ स्थविरमन्त्रिभिः । उपदेशं प्रयच्छद्धिः राज्यं कृच्छ्रण कार्यते ॥१८॥ कुलक्रमागतं वत्स राज्यं पालय सुन्दरम् । पालितेऽस्मिन् समस्तेयं सुखिनी जायते प्रजा ॥१६॥ तपोधनान् स राज्यस्थः साधुन् सन्तप्र्य सन्ततम् । गत्वा देवकुरुं काले कल्पमैशानमाश्रितः ॥१०॥ पल्योपमान बहून् तत्र देवीजनसमावृतः । नानारूपधरो भोगान् बुभुजे परमद्युतिः ॥१०।। च्युतो जम्बूमति द्वीपे विदेहे मेरुपश्चिमे । रत्नाख्या बालहरिणी महिन्यचलचक्रिणः ॥१०२॥ बभूव तनयस्तस्य सर्वलोकसमुत्सवः । अभिरामोजनामाभ्यां महागुणसमुच्चयः॥१०३॥ महावैराग्यसम्पन्न प्रव्रज्याभिमुखं च तम् । ऐश्वर्येऽयोजयच्चक्री कृतवीवाहक बलात् ॥१०॥ त्रीणि नारीसहस्राणि सततं गुणवर्तिनम् । लालयन्ति स्म यत्नेन वारिस्थमिव वारणम् ॥१०५।। वृतस्ताभिरसौ मेने रतिसौख्यं विषोपमम् । श्रामण्यं केवलं कर्तुं न लेभे शान्तमानसः ॥१०॥ असिधाराव्रतं तीव्र तासां मध्यगतो विभुः । चकार हारकेयूरमुकुटादि विभूषितः ॥१०७॥ स्थितो वरासने श्रीमान् वनिताभ्यः समन्ततः । उपदेशं ददौ जैनधर्मशंसनकारिणम् ॥१०॥
यह श्रीधर मुनिराजकी वन्दनाके लिए शीघ्रतासे सीढ़ियोंपर उतरता चला आ रहा था कि साँपके काटनेसे उसने शरीर छोड़ दिया ॥६५॥ वह मरकर माहेन्द्र नामक चतुर्थ स्वर्गमें उत्पन्न हुआ । वहाँसे च्युत होकर पुष्करद्वीपके चन्द्रादित्य नामक नगरमें राजा प्रकाशयशका पुत्र हुआ। माधवी इसकी माता थी और स्वयं उसका जगद्युति नाम था। यौवनका उदय होनेपर वह अत्यन्त श्रेष्ठ राज्यलक्ष्मीको प्राप्त हुआ ॥६६.६७॥ वह संसारसे अत्यन्त भयभीत रहता था, इसलिए वृद्ध मन्त्री उपदेश दे देकर बड़ी कठिनाईसे उससे राज्य कराते थे ॥४८॥ वृद्ध मन्त्री उससे कहा करते थे कि हे वत्स ! कुलपरम्परासे आये हुए इस सुन्दर राज्यका पालन करो क्योंकि राज्यका पालन करनेसे ही समस्त प्रजा सुखी होती है ।।६६भूषण, राज्यकार्यमें स्थिर रहता हुआ सदा तपस्वी मुनियोंको आहारादिसे सन्तुष्ट रखता था। अन्तमें वह मरकर देवकुरु नामा भोगभूमिमें गया और बहाँसे मरकर ऐशान स्वर्गमें उत्पन्न हुआ ।।१००॥ वहाँ परम कान्ति को धारण करनेवाले उस भूषणके जीवने देवीजनोंसे आवृत होकर तथा नानारूपके धारक हो अनेक पल्यों तक भोंगोंका उपभोग किया ॥१०१।। वहाँसे च्युत हो जम्बूद्वीपके पश्चिम विदेह क्षेत्र में अचल चक्रवर्तीकी बालमृगीके समान सरल, रत्ना नामकी रानीके सब लोगोंको आनन्दित करनेवाला महागुणोंका धारी पुत्र हुआ। वह पुत्र शरीर तथा नाम दोनोंसे ही अभिराम था अर्थात् 'अभिराम' इस नामका धारी था और शरीरसे अत्यन्त सुन्दर था ॥१०२-१०३।। अभिराम महावैराग्यसे सहित था तथा दीक्षा धारण करनेके लिए उद्यत था परन्तु चक्रवर्तीने उसका विवाह कर उसे जबर्दस्ती ऐश्वर्यमें-राज्यपालनमें नियुक्त कर दिया ॥१०४॥ सदा तीन हजार स्त्रियाँ, जलमें स्थित हाथीके समान उस गुणी पुत्रका सावधानी पूर्वक लालन करती थीं ॥१०॥ उन सब स्त्रियोंसे घिरा हुआ अभिराम, रतिसम्बन्धी सुखको विषके समान मानता था और शान्त चित्त हो केवल मुनिव्रत धारण करनेके लिए उत्कण्ठित रहता था परन्तु पिताकी परतन्त्रतासे उसे वह प्राप्त नहीं कर पाता था ॥१०६।। उन सब स्त्रियोंके बीचमें बैठा तथा हार केयूर मुकुट आदिसे विभूषित हुआ वह अत्यन्त कटिन असिधारा व्रतका पालन करता था ॥१०७।। जिसे चारों ओरसे स्त्रियाँ घेरे हुई थीं ऐसा वह श्रीमान् अभिराम, उत्तम आसनपर बैठकर उन सबके
१. रत्नाख्यान् ज०। २. महिष्याः ज०। ३. विवाहकं म०।
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