________________
पञ्चाशीतितम पर्व
१३७
मुनिदर्शनतृड्ग्रस्ता सुग्रीवप्रमुखा मुदा । विद्याधराः समायाता महाविभवसङ्गताः ॥१४॥ आतपत्रं मुनेदृष्ट्वा सकलोडुपसन्निभम् । उत्तीर्य पद्मनाभाद्या द्विरदेभ्यः समागताः ॥१५॥ कृताञ्जलिपुटाः 'स्तुत्वा प्रणम्य च यथाक्रमम् । समय च मुनीस्तस्थुरात्मयोग्यासु भूमिषु ॥१६॥ शुश्रवुश्च मुनेर्वाक्यं सुसमाहितचेतसः । संसारकारणध्वंसि धर्मशंसनतत्परम् ॥१७॥ अणुवर्मोऽग्रवर्मश्च श्रेयसः पदवी द्वयी । पारम्पर्येण तत्राद्या परा साक्षात्प्रकीर्तिता ॥१८॥ गृहाश्रमविधिः २पूर्वः महाविस्तारसङ्गतः । परो निर्ग्रन्थशूराणां कीर्तितोऽत्यन्तदुःसहः ॥१६॥ अनादिनिधने लोके या लोभेन मोहिताः । जन्तवो दुःखमत्युग्रं प्राप्नुवन्ति कुयोनिषु ॥२०॥ धर्मो नाम परो बन्धुः सोऽयमेको हितो महान् । मूलं यस्य दया शुद्धा फलं वक्तुं न शक्यते ॥२१॥ ईप्सितुं जन्तुना सर्व लभ्यते धर्मसङ्गमात् । धर्मः पूज्यतमो लोके बुधा धर्मेण भात्रिताः ॥२२॥ दयामूलस्तु यो धर्मो महाकल्याणकारणम् । दग्धधर्मेषु सोऽन्येषु विद्यते नैव जातुचित् ॥२३॥ जिनेन्द्रविहिते सोऽयं मार्गे परमदुर्लभे । सदा सन्निहिता" येन त्रैलोक्याग्रमवाप्यते ॥२४॥ पातालेऽसुरनाथाद्या क्षोण्यां चक्रधरादयः । फलं शक्रादयः स्वर्गे परमं यस्य भुजते ॥२५॥ तावत् प्रस्तावमासाद्य साधु नारायणः स्वयम् । प्रणम्य शिरसाऽपृच्छदिति सङ्गतपाणिकः ॥२६॥ उपमृद्य प्रभो स्तम्भं नागेन्द्रः क्षोभमागतः। प्रशमं हेतुना केन सहसा पुनरागतः ॥२७॥ भगवमिति संशोतिमप्यपाकर्तुमर्हसि । ततो जगाद वचनं केवली देशभूषणः ॥२८॥
जो मुनिराजके दर्शन करनेकी तृष्णासे ग्रस्त थे तथा महावैभवसे सहित थे ऐसे सुग्रीव आदि विद्याधर भी हर्षपूर्वक वहाँ आये थे ।।१२-१४॥ पूर्णचन्द्रमाके समान मुनिराजका छत्र देखते ही रामचन्द्र आदि हाथियोंसे उतर कर पैदल चलने लगे ॥१५।। सबने हाथ जोड़कर यथाक्रमसे मुनियोंकी स्तुति की, प्रणाम किया, पूजा की और तदनन्तर सब अपने-अपने योग्य भूमियोंमें बैठ गये ॥१६।। उन्होंने एकाग्र चित्त होकर संसारके कारणोंको नष्ट करनेवाले एवं धर्मकी प्रशंसा करनेमें तत्पर मुनिराजके वचन सुने ॥१७॥ उन्होंने कहा कि अणुधर्म और पूर्णधर्म-अणुव्रत और महाव्रत ये दोनों मोक्षके मार्ग हैं इनमेंसे अणुधर्म तो परम्परासे मोक्षका कारण है, पर महाधर्म साक्षात् हो मोक्षका कारण कहा गया है ॥१८।। पहला अणुधर्म महाविस्तारसे सहित है तथा गृहस्थाश्रममें होता है और दूसरा जो महाधर्म है वह अत्यन्त कठिन है तथा महाशूर वीर निमेन्थ साधुओंके ही होता है ॥१६॥ इस अनादिनिधन संसारमें लोभसे मोहित हुए प्राणी नरक आदि कुयोनियोंमें तीव्र दुःख पाते हैं ॥२०॥ इस संसारमें धर्म ही परम बन्धु है धम ही महाहितकारी है। निर्मल दया जिसकी जड़ है उस धर्मका फल नहीं कहा जा सकता ॥२१॥ धर्मके समागमसे प्राणी समस्त इष्ट वस्तुओं को प्राप्त होता है। लोकमें धर्म अत्यन्त पूज्य है। जो धर्मकी भावनासे सहित हैं, लोकमें वही विद्वान् कहलाते हैं ॥२२॥ जो धर्म दयामूलक है वही महाकल्याणका कारण है । संसारके अन्य अधम धर्मों में वह दयामूलक धर्म कभी भी विद्यमान नहीं है अर्थात् उनसे वह भिन्न है ॥२३।। वह दयामूलकधर्म, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रणीत परम दुर्लभमागेमें सदा विद्यमान रहता है जिसके द्वारा तीन लोकका अग्रभाग अर्थात् प्राप्त होता है ॥२४॥ जिस धर्मके उत्तम फल को पातालमें धरणेन्द्र आदि, पृथिवी पर चक्रवर्ती आदि और स्वर्गमें इन्द्र आदि भोगते हैं ॥२५॥ उसीसमय प्रकरण पाकर लक्ष्मणने स्वयं हाथ जोड़कर शिरसे प्रणामकर मुनिराजसे यह पूछा कि हे प्रभो ! त्रिलोकमण्डन नामक गजराज खम्भेको तोड़कर किस कारण क्षोभको प्राप्त हुआ और फिर किस कारण अकस्मात् ही शान्त हो गया ? ॥२६-२७। हे भगवन् ! आप मेरे इस संशयको दूर करनेके लिए योग्य हैं । तदनन्तर देशभूषण केवलीने निम्नप्रकार वचन कहे ॥२८॥
१. श्रुत्वा म० । २. पूर्व म० । ३. हितः पुमान् म० । ४. इक्षितं म० । ५. सन्निहिते म० ।
१८-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org