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पद्मपुराणे
प्रान्तस्थितमद क्लिनकपोलवरवारणे । वासिते मदगन्धेन तुरङ्गरवहारिणि ॥४४॥ कृतकोमलसङ्गीते रत्नोद्योतपटावृते । रम्ये क्रीदनकस्थाने रुचिष्ये स्वगिणामपि ॥४५॥ संसारभीरुरत्यन्तं नृपश्चकितमानसः । धृति न लभते व्याधभीरुः सारङ्गको यथा ॥४६॥ लभ्य दुःखेन मानुष्यं चपलं जलबिन्दुवत् । यौवनं फेनपुब्जेन सदृशं दोषसङ्कटम् ॥४७॥ समाप्तिविरसा भोगा जीवितं स्वप्नसमिभम् । सम्बन्धो बन्धुभिः साद्धं पक्षिसङ्गमनोपमः ॥४८॥ इति निश्चित्य यो धर्म करोति न शिवावहम् । स जराजर्जरः पश्चादृह्यते शोकवतिना ॥४६॥ यौवनेऽभिनवे रागः कोऽस्मिन् मूढकवल्लभे । अपवादकुलावासे सन्ध्योद्योतविनश्वरे ॥५०॥ अवश्यं त्यजनीये च नानाव्याधिकुलालये । शुक्रशोणितसम्मूले देहयन्त्रेऽपि का रतिः ॥५१॥ न तृप्यतीन्धनैवह्निः सलिलैन नदीपतिः । न जीवो विषयैर्यावत्संसारमपि सेवितैः ॥५२॥ कामासक्तमतिः पापो न किञ्चिद् वेत्ति देहवान् । यत्पतङ्गसमो लोभी दुखं प्राप्नोति दारुणम् ॥५३॥ गलगण्डसमानेषु क्लेदक्षरणकारिषु । स्तनाख्यमांसपिण्डेषु बीभत्सेषु कथं रतिः ॥५४॥ दन्तकीटकसम्पूर्णे ताम्बूलरसलोहिते । क्षुरिकाच्छेदसहशे शोभा वक्त्रविले नका ॥५५॥ नारीणां चेष्टिते वायुदोषादिव समुद्गते । उन्मादजनिते प्रीतिर्विलासाभिहितेऽपि का ॥५६॥
गृहान्तध्वनिना तुल्ये मनोधतिनिवासिनी । सङ्गीते रुदिते चैव विशेषो नोपलच्यते ॥५७॥ कपोलोसे युक्त हाथी विद्यमान थे, जो मदकी गन्धसे सुवासित था, घोड़ोकी हिनहिनाहटसे मनोहर था, जहाँ कोमल संगीत हो रहा था, जो रत्नोंके प्रकाशरूपी पटसे आवृत था, तथा देवोंके लिए भी रुचिकर था, धैर्यको प्राप्त नहीं होता था। चकित चित्तका धारक भरत संसारसे अत्यन्त भयभीत रहता था। जिस प्रकार शिकारीसे भयको प्राप्त हुआ हरिण सुन्दर स्थानों में धैर्यको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार भरत भी उक्त प्रकारके सुन्दर स्थानों में धैर्यको प्राप्त नहीं हो रहा था ॥४१-४६॥ वह सोचता रहता था कि मनुष्य पर्याय बड़े दुःखसे प्राप्त होती है फिर भी पानीकी बूंदके समान चञ्चल है, यौवन फेनके समूहके समान भङ्गुर तथा अनेक दोषोंसे संकट पूर्ण है ॥४७॥ भोग अन्तिम कालमें विरस अर्थात् रससे रहित है, जीवन स्वप्नके समान है
और भाई-बन्धुओंका सम्बन्ध पक्षियोंके समागमके समान है ॥४८॥ ऐसा निश्चय करनेके बाद भी जो मनुष्य मोक्ष-सुखदायी धर्म धारण नहीं करता है वह पीछे जरासे जर्जर चित्त हो शोकरूपी अग्निसे जलता रहता है ॥४६॥ जो मुर्ख मनुष्योंको प्रिय है, अपवाद अर्थात् निन्दाका कुलभवन है एवं सन्ध्याके प्रकाशके समान विनश्वर है ऐसे नवयौवनमें क्या राग करना है ? ॥५०॥ जो अवश्य ही छोड़ने योग्य है, नाना व्याधियोंका कुलभवन है, और रजवीय जिसका मूल कारण है ऐसे इस शरीर रूपी यन्त्रमें क्या प्रीति करना है ? ॥५१। जिस प्रकार ईन्धनसे अग्नि नहीं तृप्त होती और जलसे समुद्र नहीं तृप्त होता उसी प्रकार जब तक संसार है तब तक सेवन किये हुए विषयोंसे यह प्राणी तृप्त नहीं होता ॥५२॥ जिसकी बुद्धि पापमें आसक्त हो रही है ऐसा पापी मनुष्य कुछ भी नहीं समझता है और लोभी मनुष्य पतंगके समान दारुण दुःखको प्राप्त होता है ॥५३॥ जिनका आकार गलगण्डके समान है तथा जिनसे निरन्तर पसीना झरता रहता है, ऐसे स्तन नामक मांसके घृणित पिण्डोंमें क्या प्रेम करना है ? ॥५४॥ जो दाँतरूपी कीड़ोंसे युक्त है तथा जो ताम्बूलके रसरूपी रुधिरसे सहित है ऐसे छुरीके छापके समान जो मुखरूपी बिल है उसमें क्या शोभा है ? ॥५५॥ स्त्रियोंकी जो चेष्टा मानो वायुके दोषसे ही उत्पन्न हुई है अथवा उन्माद जनित है उसके विलासपूर्ण होने पर भी उसमें क्या प्रीति करना है ? ॥५६॥ जो घरके भीतरकी ध्वनिके समान है तथा जो मनके धैर्यमें निवास करता है (रोदन पक्षमें मनके अधैर्यमें निवास करता है) ऐसे संगीत तथा रोदनमें कोई
१. पटाहते म० । २. तृप्यति धनै- म० । ३. विलेन का० म० ।
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