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यशीतितमं पर्व
सुवर्णरत्नसंघातो रश्मिदीपितपुष्करः । कुत ईदृक्त्रिलोकेऽस्मिन् मानसस्याप्यगोचरः ॥३०॥ नूनं पुण्यजनैरेषा विनीता नगरी शुभा । सम्पूर्णा रामदेवेन विहिताऽन्येव शोभना ॥३१॥ सम्प्रदायेन यः स्वर्गः श्रूयते कोऽपि सुन्दरः । नूनं तमेवमादाय सम्प्राप्तौ रामलक्ष्मणौ ॥३२॥ आहोस्वित् सैव पूर्वेयं भवेदुत्तरकोशला । दुर्गमा जनितात्यन्तं प्राणिनां पुण्यवर्जिनाम् ॥३३॥ 'सशरीरेण लोकेन सखीपशुधनादिना । त्रिदिवं रघुचन्द्रेण नीता कान्तिमिमां गता ॥ ३४ ॥ एक एव महान् दोषः सुप्रकाशेऽत्र दृश्यते । महानिन्दात्रपाहेतुः सतामत्यन्तदुस्त्यजः ॥३५॥ यद्विद्याधरनाथेन हृताभिरमता ध्रुवम् । वैदेही पुनरानीता तत्किं पद्मस्य युज्यते ॥ ३६ ॥ क्षत्रियस्य कुलीनस्य ज्ञानिनो मानशालिनः । जनाः पश्यत कर्मेदं किमन्यस्याभिधीयताम् ॥३७॥ इति क्षुद्रुजनोद्गीतः परिवादः समन्ततः । सीतायाः कर्मतः पूर्वाद् विस्तारं विष्टपे गतः ॥ ३८ ॥ अथासौ भरतस्तत्र पुरे 'स्वर्गत्रपाकरे | सुरेन्द्रसदृशैर्भोगैरपि नो विन्दते रतिम् ॥३१ ॥ स्त्रीणां शतस्य सार्द्धस्य भर्त्ता प्राणमहेश्वरः । विद्वेष्टि सन्ततं राज्यलक्ष्मीं तुङ्गां तथापि ताम् ॥४०॥ निर्व्यूहबलभीशृङ्गप्रघणद्युतिहारिभिः । प्रासादैर्मण्डलीबन्धरचितैरुपशोभिते
॥४१॥
विचित्रमणिनिर्माणकुट्टिमे चारुदीर्घिके । मुक्तादामचिते हेमखचिते पुष्पितद्रुमे ॥ ४२ ॥ अनेकाश्चर्मसंकीर्णे यथाकालमनोहरे । सवंशमुरजस्थाने सुन्दरीजनसंकुले ॥४३॥
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सुशोभित है ||२६|| जिसने अपनी किरणोंसे आकाशको प्रकाशित कर रक्खा है तथा जिसका चिन्तवन मनसे भी नहीं किया जा सकता ऐसे सुवर्ण और रत्नोंकी राशि जैसी अयोध्या में थी वैसी तीनलोकमें भी अन्यत्र उपलब्ध नहीं थी ||३०|| जान पड़ता है कि पुण्यजनों के द्वारा भरी हुई यह शुभ और शोभायमान नगरी श्रीरामदेवके द्वारा मानो अन्य ही कर दी गई है || ३१ ॥ सम्प्रदाय वश सुनने में आता है कि स्वर्ग नामका कोई सुन्दर पदार्थ है सो ऐसा लगता है मानो उस स्वर्गको लेकर ही राम-लक्ष्मण यहाँ पधारे हों ||३२|| अथवा यह वही पहलेकी उत्तरकोशल पुरी है जो कि पुण्यहीन मनुष्योंके लिए अत्यन्त दुर्गम हो गई है ||३३|| ऐसा जान पड़ता है कि इस कान्तिको प्राप्त हुई यह नगरी श्री रामचन्द्रके द्वारा इसी शरीर तथा स्त्री पशु और धनादि सहित लोगों के साथ ही साथ स्वर्ग भेज दी गई है || ३४|| इस नगरी में यही एक सबसे बड़ा दोष दिखाई देता है जो कि महानिन्दा और लज्जाका कारण है तथा सत्पुरुषोंके अत्यन्त दुःख पूर्वक छोड़ने के योग्य है ||३५|| वह दोष यह है कि विद्याधरोंका राजा रावण सीताको हर ले गया था सो उसने अवश्य ही उसका सेवन किया होगा । अब वही सीता फिरसे लाई गई है सो क्या रामको ऐसा करना उचित है ? ||३६|| अहो जनो ! देखो जब क्षत्रिय, कुलीन, ज्ञानी और मानी पुरुषका यह काम है तब अन्य पुरुषका क्या कहना है ||३७|| इस प्रकार क्षुद्र मनुष्योंके द्वारा प्रकट हुआ सीताका अपवाद, पूर्व कर्मोदय से लोक में सर्वत्र विस्तारको प्राप्त हो गया ||३८|| अथानन्तर स्वर्गको लज्जा करनेवाले इस नगर में रहता हुआ भरत इन्द्र तुल्य भोगों से भी प्रीतिको प्राप्त नहीं हो रहा था ||३६|| वह यद्यपि डेढ़ सौ स्त्रियोंका प्राणनाथ था तथापि निरन्तर उस उन्नत राज्यलक्ष्मी के साथ द्वेष करता रहता था ||४०|| वह ऐसे मनोहर क्रीडास्थल में जो कि छपरियों- अट्टालिकाओं, शिखरों और देहलियोंको मनोहर कान्तिसे युक्त, पंक्तिबद्धरचित बड़े-बड़े महलों से सुशोभित था, जहाँके फर्स नाना प्रकार के रङ्ग-विरङ्ग मणियोंसे बना हुआ था, जहाँ सुन्दर सुन्दर वापिकाएँ थीं, जो मोतियोंकी मालाओंसे व्याप्त था, सुवर्णजटित था, जहाँ वृक्ष फूलों से युक्त थे, जो अनेक आश्चर्यकारी पदार्थों से व्याप्त था, समयानुकूल मनको हरण करनेवाला था, बांसुरी और मृदङ्गके बजनेका स्थान था, सुन्दरी स्त्रियोंसे युक्त था, जिसके समीप ही मदभीगे
१. स्वशरीरेण ज०, ख० म० । २. स्वस्त्री म० । ३. सुप्रकाशेऽत्र म० । ४. स्वर्ग्य म० । ५. राज्यं लक्ष्मीं म०ज० । ६. रुपशोभितैः त० । ७. यथा काले म० ।
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