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त्र्यशीतितमं पर्व
पुनः प्रणम्य शिरसा पृच्छति श्रेणिको यतिम् । गृहे श्रीविस्तरं तेषां समुद्भूतातिकौतुकः ||३|| उवाच गौतमः पाद्माः लाचमणा भारता नृप । शात्रुध्नाश्च न शक्यन्ते भोगाः कार्त्स्न्येन शंसितुम् ||२|| तथापि शृणुते राजन् वेदयामि समासतः । रामचक्रप्रभावेण विभवस्य समुद्भवम् ||३|| नन्द्यावर्त्ताख्यसंस्थानं बहुद्वारोश्चगोपुरम् । शक्रालयसमं कान्तं भवनं भवनं श्रियः || ४ || चतुःशाल इति ख्यातः प्राकारोऽस्य विराजते । महाद्विशिखरोत्तुङ्गो वैजयन्त्यभिधा सभा ॥५॥ शाला चन्द्रमणी रम्या सुवीथीति प्रकीर्त्तिता । प्रासादकूटमत्यन्तमुत्तुङ्गमवलोकनम् ॥६॥ प्रेक्षागृहं च विन्ध्याभं वर्द्धमानककीर्त्तनम् । परिकर्मोपयुक्तानि कर्मान्तभवनानि च ॥७॥ कुक्कुटाण्डप्रभं गर्भगृहकूटं महाद्भुतम् । एकस्तम्भष्टतं कल्पतरुतुल्यं मनोहरम् ॥८॥ मण्डलेन तदावृत्य देवीनां गृहपालिका | तरङ्गाली परिख्याता स्थिता रत्नसमुज्ज्वला ॥१॥ महदम्भोजकाण्डं च विद्युद्दलसमद्युति । सुश्लिष्टा सुभगस्पर्शा शय्या सिंहशिरः स्थिता ॥ १० ॥ उद्यद्भास्करसङ्कारामुत्तमं हरिविष्टरम् । चामराणि शशाङ्कांशुसञ्चयप्रतिमानि च ॥ ११ ॥ इष्टच्छायकरं स्फीतं छत्रं तारापतिप्रभम् । सुखेन गमने कान्ते पादुके विषमो चिके ॥ १२ ॥ अनर्धाणि च वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च । दुर्भेद्यं कवचं कान्तं मणिकुण्डलयुग्मकम् ॥ १३ ॥ अमोघान गदाखड्गकन कारिशिलीमुखाः । अन्यानि च महास्राणि भासुराणि रणाजिरे ||१४||
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अथानन्तर जिसे अत्यन्त कौतुक उत्पन्न हुआ था ऐसे राजा श्रेणिकने शिरसे प्रणाम कर गौतम स्वामीसे पूछा कि हे भगवन् ! उन राम-लक्ष्मण के घरमें लक्ष्मीका विस्तार कैसा था ? ॥१॥ तत्र गौतम स्वामीने कहा कि हे राजन् ! यद्यपि राम-लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न के भोगों का वर्णन सम्पूर्ण रूप से नहीं किया जा सकता तथापि हे राजन् ! बलभद्र और नारायणके प्रभाव से . उनके जो वैभव प्रकट हुआ था वह संक्षेपसे कहता हूँ सो सुन || २-३ || उनके अनेक द्वारों तथा उच्च गोपुरोंसे युक्त, इन्द्रभवन के समान सुन्दर लक्ष्मीका निवासभूत नन्द्यावर्त नामका भवन था ||४|| किसी महागिरिके शिखरों के समान ऊँचा चतुःशाल नामका कोट था, वैजयन्ती नामकी सभा थी । चन्द्रकान्त मणियोंसे निर्मित सुवीथी नामकी मनोहरशाला थी, अत्यन्त ऊँचा तथा सब दिशाओंका अवलोकन करानेवाला प्रासादकूट था, विन्ध्यगिरिके समान ऊँचा वर्द्धमानक नामक प्रेक्षागृह था, अनेक प्रकारके उपकरणोंसे युक्त कार्यालय थे, उनका गर्भगृह कुक्कुटीके अण्डेके समान महान् आश्चर्यकारी था, एक खम्भे पर खड़ा था, और कल्पवृक्ष के समान मनोहर था, ||५|| उस गर्भगृहको चारों ओरसे घेर कर तरङ्गाली नामसे प्रसिद्ध तथा रत्नोंसे देदीप्यमान रानियों के महलोंकी पंक्ति थी ॥६॥ बिजली के खण्डोंके समान कान्तिवाला अम्भोजकाण्ड नामका शय्यागृह था, सुन्दर, सुकोमल स्पर्शवाली तथा सिंहके शिरके समान पायों पर स्थित शय्या थी, उगते हुए सूर्यके समान उत्तम सिंहासन था, चन्द्रमाकी किरणों के समूह के समान चरथे ॥१०-११ ॥ इच्छानुकूल छायाको करनेवाला चन्द्रमाके समान कान्तिसे युक्त बड़ा भारी छत्र था, सुखसे गमन करानेवाली विषमोचिका नामकी दो खड़ाऊँ थीं ||१२|| अनर्घ्य वस्त्र थे, दिव्य आभूषण थे, दुर्भेद्य कवच था, देदीप्यमान मणिमय कुण्डलोंका जोड़ा था, कभी व्यर्थ नहीं जानेवाले गदा, खड्ग, कनक, चक्र, वाण तथा रणाङ्गणमें चमकनेवाले अन्य बड़े-बड़े
१. श्री विस्तरे म० । २. द्युतिः म०, न० । ३. गगने म०, न० ।
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