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पम पुराणे
मित्रामात्यादिभिः सा भ्रातृपत्नीभिरेव च । आहारमकरोत् स्वं स्वं ततो यातो जनः पदम् ॥१५|| किंकः किं पुनः शान्तः किंस्थितो भरतान्तिके । किमेतदिति लोकस्य कथा नेभे निवर्तते ॥१६॥ मगधेन्द्राथ निःशेषा महामात्राः समागताः। प्रणम्यादरिणोऽवोचन् पमं लचमणसङ्गतम् ॥१७॥ अहोऽय वर्तते देव तुरीयो राजदन्तिनः । विमुक्तपूर्वकृत्यस्य श्लथविग्रहधारिणः ॥१८॥ यतः प्रभृति संक्षोभं सम्प्राप्य शममागतः । तत एव समारभ्य वर्तते ध्यानसङ्गतः ॥१६॥ महायतं विनिःश्वस्य मुकुलाक्षोऽतिविह्वलः । चिरं किं किमपि ध्यात्वा हन्ति हस्तेन मेदिनीम् ॥२०॥ बहुप्रियशतैः स्तोत्रः स्तूयमानोऽपि सन्ततम् । कवलं नैव गृह्णाति न रवं कुरुते श्रुतौ ॥२१॥ विधाय दन्तयोरग्रे करं मीलितलोचनः । लेप्यकर्म गजेन्द्रस्य चिरं याति समुन्नतम् ॥२२॥ किमयं कृत्रिमो दन्ती किंवा सत्यमहाद्विपः । इति तत्र समस्तस्य मतिर्लोकस्य वर्तते ॥२३॥ चाटुवाक्यानुरोधेन गृहीतमपि कृच्छुतः। विमुञ्चत्यास्यमप्राप्तं कवलं मृष्टमप्यलम् ॥२४॥ त्रिपदीछेवललितं समुत्सृज्य शुचान्वितः । आसज्य किञ्चिदालाने विनिःश्वस्यावतिष्टते ॥२५॥ समस्तशास्त्रसत्कारविमलीकृतमानसैः । प्रख्यातैरप्यलं वैद्ये वो नास्योपलच्यते ॥२६॥ रचितं स्वादरेणापि सङ्गीतं सुमनोहरम् । न शृणोति यथापूर्व क्वापि निक्षिप्तमानसः ॥२७॥ मङ्गलैः कौतुकैोगैमन्त्रविद्याभिरौषधैः । न प्रत्यापत्तिमायाति लालितोऽपि महादरैः ॥२८॥ न विहार न निगायां न मासे न च वारिणि । कुरुते याचितोऽपीच्छां सुहृन्मानमितो यथा ॥२६॥
और विधिपूर्वक प्रणाम कर साधुओंको सन्तुष्ट किया ॥१४॥ तत्पश्चात् मित्रों, मन्त्री आदि परि. जनों और भौजाइयोंके साथ भोजन किया । उसके बाद सब लोग अपने अपने स्थान पर चले गये ॥१५।। त्रिलोकमण्डन हाथी कुपित क्यों हुआ ? फिर शान्त कैसे हो गया ? भरतके पास क्यों जा बैठा? यह सब क्या बात है? इस प्रकार लोगोंकी हस्तिविषयक कथा दर ही नहीं थी। भावार्थ-जहाँ देखो वहीं हाथीके विषयकी चर्चा होती रहती थी ॥१६।। तदनन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सब महावतोंने आकर तथा आदर पूर्वक प्रणाम कर राम लक्ष्मणसे कहा ॥१७॥ कि हे देव ! अहो ! सब कार्य छोड़े और शिथिल शरीरको धारण किये हुए त्रिलोकमण्डन हाथीको आज चौथा दिन है ॥१८॥ जिस समयसे वह क्षोभको प्राप्त हो शान्त हुआ है उसी समयसे लेकर वह ध्यानमें आरूढ है ॥१॥ वह आँख बन्दकर अत्यन्त विह्वल होता हुआ बड़ी लम्बी सांस भरता है और चिरकाल तक कुछ कुछ ध्यान करता हुआ सैंडसे पृथ्वीको ताड़ित करता रहता है अर्थात् पृथिवीपर सूंड़ पटकता रहता है ॥२०॥ यद्यपि उसकी निरन्तर सैकड़ों प्रिय स्तोत्रोंसे स्तुति की जाती है तथापि वह न ग्रास ग्रहण करता है और न कानोंमें शब्द ही करता है अर्थात् कुछ भी सुनता नहीं है ।।२१॥ वह नेत्र बन्दकर दाँतोंके अग्रभाग पर सँड रखे हए ऐसा निश्चल खड़ा है मानो चिरकाल तक स्थिर रहनेवाला हाथीका चित्राम ही है ॥२२।। क्या यह बनावटी हाथी है ? अथवा सचमुचका महागजराज है इस प्रकार उसके विषयमें लोगोंमें तर्क उत्पन्न होता रहता है ।।२३।। मधुर वचनोंके अनुरोधसे यदि किसी तरह ग्रास ग्रहण कर भी लेता है तो वह उस मधुर ग्रासको मुख तक पहुँचनेके पहले ही छोड़ देता है ॥२४॥ वह त्रिपदी छेदकी लीलाको छोड़कर शोकसे युक्त होता हुआ किसी खम्भे में कुछ थोड़ा अटककर सांस भरता हुआ खड़ा है ॥२५।। समस्त शास्त्रोंके सत्कारसे जिनका मन अत्यन्त निर्मल हो गया है ऐसे प्रसिद्ध प्रसिद्ध वैद्योंके द्वारा भी इसके अभिप्रायका पता नहीं चलता ॥२६॥ जिसका चित्त किसी अन्य पदार्थमें अटक रहा है ऐसा यह हाथी बड़े आदरके साथ रचित अत्यन्त मनोहर संगीतको पहलेके समान नहीं सुनता है ॥२७॥ वह महान आदरसे प्यार किये जाने पर भी मङ्गल मय कौतुक, योग, मन्त्र, विद्या और औषधि आदिके द्वारा स्वस्थताको प्राप्त नहीं हो रहा है ॥२८।। वह मानको प्राप्त हुए मित्रके समान याचित होनेपर भी न विहारमें, न निद्रामें,
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