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चतुरशीतितमं पर्व
तथा विचिन्तयन्नेष विनयी द्विपसत्तमः । पद्माभचक्रपाणिभ्यां वहद्भया विस्मयं परम् ॥१॥ किञ्चिदाशक्तिात्माभ्यामुपसृत्य शनैः शनैः । महाकालघनाकारो जगृहे भाषितप्रियः ॥२॥ प्राप्य नारायणादाज्ञामन्यैरुत्तमसम्मदैः । सर्वालङ्कारयोगेन परां पूजां च लम्भितः ॥३॥ . प्रशान्ते द्विरदश्रेष्ठे नगर्याकुलतोज्झिता । घनाघनपटोन्मुक्ता रराज शरदा समम् ॥४॥ विद्याधरजनाधीशैश्चण्डा यस्योत्तमा गतिः। रोर्बु नातिबलैः शक्या नाकसभिरेव वा ॥५॥ सोऽयं कैलासकम्पस्य राक्षसेन्द्रस्य वाहनः । भूतपूर्वः कथं रुद्धः सीरिणा लचमणेन च ॥६॥ तारशीं विकृतिं गत्वा यदयं शममागतः । तदस्य पूर्वलोकस्य पुण्यं दीर्घायुरावहम् ॥७॥ नगर्यामिति सर्वस्या परं विस्मयमीयुषः । लोकस्य संकथा जाता विधूतकरमस्तका ॥८॥ ततः सीताविशल्याभ्यां समं तं वारणेश्वरम् । आरुह्य सुमहाभूतिभरतः प्रस्थितो गृहम् ॥६॥ महालङ्कारधारिण्यः शेषा अपि वराङ्गनाः। विचित्रवाहनारूढा भरतं पर्यवेष्टयन् ॥१०॥ तुरङ्गरथमारूढो विभूत्या परयाऽन्वितः । शत्रुघ्नोऽस्य महातेजाः प्रययावग्रतः स्थितः ॥११॥ कम्लाम्लातकभेर्यादिमहावादिनिस्वनः । सञ्जातः शङ्खशब्देन मिश्रः कोलाहलान्वितः ॥१२॥ कुसुमामोदमुद्यानं त्यक्त्वा ते नन्दनोपमम् । त्रिदशा इव संम्प्रापुरालयं सुमनोहरम् ॥१३॥ उत्तीर्य द्विरदाद् राजा प्रविश्याऽऽहारमण्डपम् । साधुन् सन्तर्प्य विधिवत् प्रणम्य च विशुद्धधीः ॥१४॥
अथानन्तर जो इस प्रकार विचार कर रहा था जिसका आकार महाश्याम मेधके समान था तथा जिसके प्रति मधुर शब्दोंका उच्चारण किया गया था ऐसे उस हाथीको परम आश्चर्य धारण करनेवाले तथा कुछ कुछ शङ्कित चित्तवाले राम लक्ष्मणने धीरे धीरे पास जाकर पकड़ लिया ॥१-२॥ लक्ष्मणकी आज्ञा पाकर उत्तम हर्षसे युक्त अन्य लोगोंने सर्व प्रकारसे अलंकार पहिनाकर उस हाथीका बहुत भारी सत्कार किया ॥३॥ उस गजराजके शान्त होनेपर जिसकी आकुलता छूट गई थी ऐसी वह नगरी मेघरूपी पटसे रहित हो शरद् ऋतुके समान सुशोभित हो रही थी ॥४॥ जिसकी अत्यन्त प्रचण्ड गति विद्याधर राजाओं तथा अत्यन्त बलवान् देवोंके द्वारा भी नहीं रोकी जा सकती थी ॥५॥ ऐसा यह कैलासको कम्पित करनेवाले रावणका भूतपूर्व वाहन राम और बलभद्र के द्वारा कैसे रोक लिया गया ? ॥६॥ उस प्रकारकी विकृतिको प्राप्त होकर जो यह शान्त भावको प्राप्त हुआ है सो यह उसकी दीर्घायुका कारण पूर्व पर्यायका पुण्य ही समझना चाहिए ॥७॥ इस तरह समस्त नगरीमें परम आश्चर्यको प्राप्त हुए लोगोंमें हाथ तथा मस्तकको हिलानेवाली चचो हो रही थी ॥5॥ तदनन्तर सीता और विशल्याके साथ उस गजराज पर सवार हो महाविभूतिके धारक भरतने घरकी ओर प्रस्थान किया ॥६॥ जो उत्तमोत्तम अलं. कार धारण कर रही थीं तथा नाना प्रकारके वाहनोंपर आरूढ थीं ऐसी शेष स्त्रियाँ भी भरतको घेरे हुए थीं ॥१०॥ घोड़ोंके रथपर बैठा परम विभूतिसे युक्त महातेजस्वी शत्रुघ्न, भरतके आगे आगे चल रहा था ।।११।। शङ्खोंके शब्दसे मिश्रित तथा कोलाहलसे युक्त कम्ला अम्लातक तथा भेरी आदि महावादित्रीका शब्द हो रहा था ॥१२॥ जिस प्रकार देव नन्दन वनको छोड़कर अपने अत्यन्त मनोहर स्वर्गको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार वे सब फूलोंकी सुगन्धिसे युक्त कुसुमामोद नामक उद्यानको छोड़कर अपने मनोहर घरको प्राप्त हुए ॥१३।।
तदनन्तर विशुद्ध बुद्धिके धारक राजा भरतने हाथीसे उतरकर आहार मण्डपमें प्रवेशकर १. कृतपूर्वकथं म०।
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