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ज्यशीतितमं पर्व
१२.
अमेध्यमयदेहाभिश्चमाभिः केवलं त्वचा । नारीभिः कीदृशं सौख्यं सेवमानस्य जायते ॥५॥ विट्कुम्भद्वितयं नीत्वा संयोगमतिलजनम् । विमूढमानसः लोकः सुखमित्यभिमन्यते ॥५६॥ इच्छामात्रसमुद्भूतैर्दिव्यैर्यो भोगविस्तरैः । न तृप्यति कथं तस्य तृप्तिर्मानुषभोगकैः ॥१०॥ तृप्तिं न तृणकोटिस्थैरवश्यायकवने । बजतीन्धनविक्रायः केवलं श्रममृच्छति ॥११॥ तथाऽप्युत्तमया राज्यश्रिया तृप्तिमनाप्तवान् । सीदासः कुत्सितं कर्म तथाविधमसेवत ॥६२॥ गङ्गायां पूरयुक्तायां प्रविष्टा मांसलुब्धकाः । काका हस्तिशवं मृत्युं प्राप्नुवन्ति महोदधौ ॥३॥ मोहपङ्कनिमग्नेयं प्रजामण्डू किकाद्य ते । लोभाहिनाऽतितीव्रण नरकच्छिद्रमापिता ॥६॥ एवं चिन्तयतस्तस्य भरतस्य विरागिणः । विघ्नेन बहवो यान्ति दिवसाः शान्तचेतसः ॥६५॥ व्रतमप्राप्नुवम्जैनं सर्वदुःखविनाशनम् । पारस्थो यथा सिंहः स समर्थोऽपि सीदति ॥६६॥ प्रशान्तहृदयोऽत्यर्थकेकयायाचनादसौ। ध्रियते हलिचक्रिभ्यां सस्नेहाभ्यां समुत्कटम् ॥६॥ उच्यते च यथा भ्रातस्त्वमेव पृथिवीतले । सकले स्थापितो राजा पित्रा दीवाभिलाषिणा ॥१८॥ सोऽभिषिक्तो भवान्नाथो गुरुणा विष्टपे ननु । अस्माकमपि हि स्वामी कुरु लोकस्य पालनम् ॥६॥ इदं सुदर्शन चक्रमिमे विद्याधराधिपाः । तवाज्ञासाधनं पस्नीमिव भुंचव वसुन्धराम् ॥७॥
धारयामि स्वयं छनं शशाधवलं तव । शत्रुघ्नश्चामरं धत्ते मन्त्री लक्ष्मणसुन्दरः ॥७॥ विशेषता नहीं दिखाई देती ॥५७॥ जिनका शरीर अपवित्र वस्तुओंसे तन्मय है तथा जो केवल चमड़ेसे आच्छादित हैं ऐसी स्त्रियोंसे उनकी सेवा करने वाले पुरुषको क्या सुख होता है ? ॥५८।। मूर्खमना प्राणी मलभूत घटके समान अत्यन्त लज्जाकारी संयोगको प्राप्त हो मुझ सुख हुआ है ऐसा मानता है ॥५६॥ अरे ! जो इच्छामात्रसे उत्पन्न होनेवाले स्वर्गसम्बन्धी भोगोंके समूहसे तृप्त नहीं होता उसे मनुष्य पर्यायके तुच्छ भोगोंसे कैसे तृप्ति हो सकती है ? ॥६०॥ ईन्धन बेचने वाला मनुष्य वनमें तृणोंके अप्रभाग पर स्थित ओसके कणोंसे तृप्तिको प्राप्त नहीं होता केवल श्रमको ही प्राप्त होता है ॥६१॥ उस सौदासको तो देखो जो राजलक्ष्मीसे तृप्त नहीं हुभा किन्तु इसके विपरीत जिसने नरमांस-भक्षण जैसा अयोग्य कार्य किया ॥६२॥ जिस प्रकार प्रवाहयुक्त गङ्गामें मांसके लोभी काक, मृत हस्तीके शवको चूथते हुए तृप्त नहीं होते और अन्त में महासागरमें प्रविष्ट हो मृत्युको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार संसारके प्राणी विषयोंमें तृप्त न हो अन्त में भवसागरमें डबते हैं ॥६३॥ हे आत्मन् ! मोहरूपी कीचड़में फंसी यह तेरी प्रजारूपी मेंडकी लोभरूपी तीव्र सर्पके द्वारा ग्रस्त हो आज नरक रूपी बिलमें ले जाई जा रही है ॥६४|| इस प्रकार विचार करते हुए उस शान्त चित्तके धारक विरागी भरतकी दीक्षामें विघ्न करने वाले बहुतसे दिन व्यतीत हो गये ॥६॥ जिस प्रकार समर्थ होने पर भी पिंजड़े में स्थित सिंह दुखी होता है उसी प्रकार भरत दीक्षाचारण करनेमें समर्थ होता हुआ भी सर्व दुःखको नष्ट करने वाले जिनेन्द्रव्रतको नहीं प्राप्त होता हुआ दुःखी हो रहा था ॥६६।। भरतकी माता केकयाने उसे रोकनेके लिए गमलक्ष्मणसे याचना की सो अत्यधिक स्नेहके धारक रामलक्ष्मणने प्रशान्तचिच भरतको रोक कर इस प्रकार समझाया कि हे भाई ! दीक्षाके अभिलाषी पिताने तुम्हींको सकल पृथिवीतलका राजा स्थापित किया था ॥६७-६८॥ यतश्च पिताने जगत्का शासन करनेके लिए निश्चयसे आपका अभिषेक किया था इसलिए हमलोगोंके भी आप हो स्वामी हो। अतः आप ही लोकका पालन कीजिये ॥६६॥ यह सुदर्शन चक्र और ये विद्याधर राजा तुम्हारी आज्ञाके साधन हैं इसलिए पत्नीके समान इस वसुधाका उपभोग करो ॥७०।। मैं स्वयं तुम्हारे ऊपर
१.द्वितीयं । २. शोकः म०। ३. प्रजां मण्डकिकायते म०। ४. मायिना म०। दायिना ख०। नरकच्छिद्रनायिना ज०, क०। ५. विष्टपेव न तु म.।
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