________________
पद्मपुराणे
तादृशी भिस्तथाप्यस्य सङ्गतस्य न मानसम् । जगाम विक्रियां काञ्चिद् दाक्षिण्यं केवलं श्रितः ॥ १०२ ॥ सम्प्राप्तप्रसरास्तस्मात्ततः शङ्काविवर्जिताः । नार्यस्ता भरतीयाश्च प्रापुः परमसम्मदम् ॥१०३॥ परिवार्य ततस्तास्तं समस्ताश्चारुविभ्रमाः । अवतीर्णा महारम्यं सरः सरसिजेक्षणाः ॥ १०४ ॥ क्रीडानिस्पृह चित्तोऽसौ तस्वार्थगतमानसः । योषितामनुरोधेन जलसङ्गमशिश्रियत् ॥ १०५ ॥ देवीजनसमाकीर्णो विनयेन समन्वितः । विरराज सरः प्राप्तः करी यूथपतिर्यथा ॥ १०६ ॥ स्निग्धैः सुगन्धिभिः कान्तैखिभिरुद्वर्त्तनेरसौ । उद्वर्त्तितः पृथुच्छायापहरञ्जितवारिभिः ॥ १०७ ॥ किञ्चित्संक्रीडय सञ्चेष्टः सुम्नातः सुमनोहरः । सरसः केकयीसुनुरुतीर्णः परमेश्वरः ॥१०८॥ विहितार्हन्महापूजः पद्मनीलोत्पलादिभिः । सादरेणाङ्गनौघेन स समग्रमलङ्कृतः ||१०|| एतस्मिन्नन्तरे योऽसौ महाजलधराकृतिः । त्रिलोकमण्डनाभिख्यः ख्यातो गजपतिः शुभः ॥ ११० ॥ आलानं स समाभिय महाभैरवनिःस्वनः । निःससार निजावासाद् दानदुर्दिनिताम्बरः ॥ १११ ॥ घनाघनघनोदारगम्भीरं तस्य गर्जितम् । श्रुत्वाऽयोध्यापुरी जाता समुम्मन्तजनेव सा ॥ ११२ ॥ जनितोदारसङ्घट्टेर्भय स्तब्धश्रुतेक्षणैः । राजमार्गान्तराः पूर्णाः सायासाधोरणैर्गजैः ॥ ११३ ॥ यथानुकूलमाश्रित्य दिशो दश महाभयाः । नेशुस्ते मदनियुक्ता गृहीतय मिरंहसा ॥ ११४ ॥ हेमरत्न महाकूटं गोपुरं गिरिसन्निभम् । विध्वस्य भरतं तेन प्रवृत्तो वारणोत्तमः ॥ ११५ ॥
१३०
समूहकी यह प्रिय प्रार्थना स्वीकृत कीजिए ॥ १०१ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यद्यपि उन सब स्त्रियोंने भरतको घेर लिया था फिर भी उसका चित्त रनमात्र भी विकारको प्राप्त नहीं हुआ । केवल दाक्षिण्य वश उसने उनकी प्रार्थना स्वीकृत कर ली ||१०२ ॥
तदनन्तर आज्ञा प्राप्त कर राम, लक्ष्मण और भरतकी स्त्रियाँ शङ्कारहित हो परम आनन्दको प्राप्त हुई ॥१०३॥ तत्पश्चात् सुन्दर चेष्टाओंसे युक्त वे कमललोचना स्त्रियाँ भरतको घेरकर महारमणीय सरोवर में उतरीं || १०४ || जिसका चित्त तत्त्वके चिन्तन करनेमें लगा हुआ था तथा क्रीड़ासे निःस्पृह था ऐसा भरत केवल स्त्रियोंके अनुरोधसे ही जलके समागमको प्राप्त हुआ था अर्थात् जलमें उतरा था || १०५ || स्त्रियोंसे घिरा हुआ विनयी भरत, सरोवर में पहुँचकर ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो झुण्डका स्वामी गजराज ही हो || १०६ || अपनी विशाल कान्तिसे जलको रङ्गीन करनेवाले, चिकनाई से युक्त, सुन्दर तथा सुगन्धित तीन उपटन उस भरतकी देहपर लगाये गये थे ||१०७|| उत्तम चेष्टाओंसे युक्त एवं अतिशय मनोहर राजा भरत, कुछ क्रीड़ाकर तथा अच्छी तरह स्नानकर सरोवर से बाहर निकल आये || १०८|| तदनन्तर कमल और नीलोत्पल आदिसे जिसने अर्हन्त भगवान्को महापूजा की थी ऐसा भरत उन आदरपूर्ण स्त्रियोंके समूह से अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥ १०६॥
इसी बीच में महामेघ के समान त्रिलोकमंडन नामका जो प्रसिद्ध गजराज था वह खम्भेको तोड़कर अपने निवासगृहसे बाहर निकल आया । उस समय वह महाभयंकर शब्द कर रहा था तथा मद जलसे आकाशको वर्षायुक्त कर रहा था ।। ११० - १११।। मेघकी सघन विशाल गर्जना के समान उसकी गर्जना सुनकर समस्त अयोध्यापुरी ऐसी हो गई मानो उसके समस्त लोग उन्मत्त ही हो गये हों ॥ ११२ ॥ जिन्होंने भीड़ के कारण धक्कामुक्की कर रक्खी थी, तथा जिनके कान और नेत्र भयसे स्थिर थे ऐसे इधर-उधर दौड़नेका श्रम उठाने वाले महावतोंसे युक्त हाथियोंसे नगर राजमार्ग भर गये थे ॥११३॥ घोड़ों के वेगको ग्रहण करनेवाले वे महाभयदायी मदोन्मत्त हाथी इच्छानुकूल दशों दिशाओं में बिखर गये - फैल गये ||११४॥ जिसके महाशिवर सुवर्ण तथा रत्नमय थे ऐसे पर्वत के समान विशाल गोपुरको तोड़कर वह त्रिलोकमण्डन हाथी जिस
१. भारतीयाश्च म० । २. याता म० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org