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पद्मपुराणे
इत्युक्तोऽपि न चेद्वाक्यं ममेदं कुरुते भवान् । यास्यामोऽद्य ततो भूयस्तदेव मृगवद्वनम् ॥७२॥ जित्वा राक्षसवंशस्य तिलकं रावणाभिधम् । भवद्दर्शनसौख्यस्य तृषिता वयमागताः ॥७३॥ निःप्रत्यूहमिदं राज्यं भुज्यतां तावदायतम् । अस्माभिः सहितः पश्चात्प्रवेच्यसि तपोवनम् ॥७॥ एवं भाषितुमासक्तमेनं पद्मं सुचेतसम् । जगाद भरतोऽत्यन्तविषयासक्तिनिःस्पृहः ॥७५॥ इच्छामि देव सन्त्यक्तमेतां राज्यश्रियं द्रुतम् । त्यक्त्वा यां सत्तपः कृत्वा वीरा मोक्षं समाश्रिताः ॥७६॥ सदा नरेन्द्र कामाचौँ चञ्चलौ दुःखसकती। विद्वेष्यौ सरिलोकस्य समूढजनसेवितौ ॥७७॥ अशाश्वतेषु भोगेषु सुरलोकसमेष्वपि । हलायुध न मे तृष्गा समुद्रौपम्यवस्वपि ॥७॥ संसारसागरं घोरं मृत्युपातालसङ्कुलम् । जन्मकल्लोलसङ्कोर्ण रत्यरत्युरुवीचिकम् ॥७॥ रागद्वेषमहाग्राहं नानादुःखभयङ्करम् । व्रतपोतं समारुह्य वाञ्छामि तरितुं नृप ॥८॥ पुनःपुनरहं राजन् भ्राम्यन् विविधयोनिषु । गर्भवासादिषु श्रान्तो दुःसहं दुःखमाप्तवान् ॥८॥ एवमुक्तं समाकर्ण्य वाष्पव्याकुललोचनाः । नृपा विस्मयमापन्ना जगदुः कम्पितस्वनाः ॥२॥ वचनं कुरु तातीयं लोकं पालय पार्थिव । यदि तेऽवमता लचमीमुनिः पश्चाद् भविष्यसि ॥३॥ उवाच भरतो वाढं तातस्योक्तं मया कृतम् । चिरं प्रपालितो लोको मानितो भोगविस्तरः ॥८॥ दत्तं च परमं दानं साधुवर्गः सुतर्पितः । तातेन यत्कृतं कर्तुं तदपीच्छामि साम्प्रतम् ॥५॥ अनुमोदनमचैव मह्यं किं न प्रयच्छत । श्लाध्ये वस्तुनि सम्बन्धः कर्तव्यो हि यथा तथा ॥८६॥
चन्द्रमाके समान सफेद छत्र धारण करता हूँ, शत्रुघ्न चमर धारण करता है और लक्ष्मण तेरा मन्त्री है ॥७१।। इस प्रकार कहने पर भी यदि तुम मेरी बात नहीं मानते हो तो मैं फिर उसी तरह हरिणकी नाई आज वनमें चला जाऊँगा ॥७२।। राक्षस वंशके तिलक रावणको जीत कर हम लोग आपके दर्शन सम्बन्धी सुखकी तृष्णासे ही यहाँ आये हैं ॥७३।। अभी तुम इस निर्विघ्न विशालराज्यका उपभोग करो पश्चात् हमारे साथ तपोवनमें प्रवेश करना ।।७४।। विषय सम्बन्धी आसक्तिसे जिसका हृदय अत्यन्त निःस्पृह हो गया था ऐसे भरतने पूर्वोक्त प्रकार कथन करनेमें तत्पर एवं उत्तम हृदयके धारक रामसे इस तरह कहा कि ॥७५।। हे देव ! जिसे छोड़कर तथा उत्तम तप कर वीर मनुष्य मोक्षको प्राप्त हुए हैं मैं उस राज्यलक्ष्मीका शीघ्र ही त्याग करना चाहता हूँ ॥७६।। हे राजन् ! ये काम और अर्थ चञ्चल हैं, दुःखसे प्राप्त होते हैं, अत्यन्त मूर्ख जनोंके द्वारा सेवित हैं तथा विद्वजनोंके द्वेषके पात्र हैं ॥७७|| हे हलायुध ! ये नश्वर भोग स्वर्ग लोकके समान हों अथवा समुद्र की उपमाको धारण करनेवाले हों तो भी मेरी इनमें तृष्णा नहीं है ॥७८॥ हे राजन् ! जो अत्यन्त भयंकर है, मृत्यु रूपी पाताल तक व्याप्त है, जन्म रूपी कल्लोलोंसे युक्त है, जिसमें रति और अरति रूपी बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, जो राग-द्वेष रूपी बड़े-बड़े मगर-मच्छोंसे सहित है एवं नाना प्रकारके दुःखोंसे भयंकर है, ऐसे इस संसार रूपी सागरको मैं व्रत रूपी जहाज पर आरूढ़ हो तैरना चाहता हूँ ॥७६-८०|| हे राजन् ! नाना योनियोंमें बार-बार भ्रमण करता हुआ मैं गर्भवासादिके दुःसह दुःख प्राप्त कर थक गया हूँ ॥२१॥
इस प्रकार भरतके शब्द सुन जिनके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त हो रहे थे, जो आश्चर्यको प्राप्त थे तथा जिनके स्वर कम्पित थे ऐसे राजा बोले कि हे राजन् ! पिताका वचन अङ्गीकृत करो और लोकका पालन करो । यदि लक्ष्मी तुम्हें इष्ट नहीं है तो कुछ समय पीछे मुनि हो जाना ॥८२--३॥ इसके उत्तरमें भरतने कहा कि मैंने पिताके वचनका अच्छी तरह पालन किया है, चिरकाल तक लोककी रक्षा की है, भोगसमूहका सम्मान किया है ।।८४॥ परम दान दिया है, साधुओंके समहको संतष्ट किया है. अब जो कार्य पिताने किया था वही करना चाहता है॥॥ आप लोग मेरे लिए आज ही अनुमति क्यों नहीं देते हैं ? यथार्थमें उत्तम कार्यके साथ तो जिस तरह
१. संगती म०।
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