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यशीतितमं पर्व
जित्वा शत्रुगणं संख्ये द्विपसङ्घातभीषणे । नन्दाद्यैरिव या लक्ष्मीर्भवद्भिः समुपार्जिता ॥ ८७ ॥ महत्यपि न सा तृप्तिं ममोत्पादयितुं क्षमा । गङ्गेव वारि नाथस्य तत्वमार्गे घटे ततः ॥८८॥ इत्युक्त्वात्यन्तसंविग्नस्तानापृच्छय ससम्भ्रमः । सिंहासनात् समुत्तस्थौ भरतो भरतो यथा ॥ ६६॥ मनोहरगतिश्चैव यावद् गन्तुं समुद्यतः । नारायणेन संरुद्धस्तावत् सस्नेहसम्भ्रमम् ॥१०॥ करेणोद्वर्तयन्नेष सौमित्रिकरपल्लवम् । यावदाश्वासयत्यश्रुदुर्दिनास्यां च मातरम् ॥ ६१ ॥ तावद् रामाज्ञया प्राप्ताः स्त्रियो लक्ष्मीसुविभ्रमाः । रुरुदुर्भरतं वातकम्पितोत्पललोचनाः ॥६२॥ एतस्मिन्नन्तरे सीता स्वयं श्रीरिव देहिनी । उर्वी भानुमती देवी विशल्या सुन्दरी तथा ॥ ६३ ॥ ऐन्द्री रत्नवती लक्ष्मीः सार्या गुणवतीश्रुतिः । कान्ता बन्धुमती भद्रा कौबेरी नलकूबरा ॥ ६४ ॥ तथा कल्याणमालासौ चन्द्रिणी मानसोत्सवा । मनोरमा प्रियानन्दा चन्द्रकान्ता कलावती ॥३५॥ रत्नस्थली सुरती श्रीकान्ता गुगसागरा | पद्मावती तथाऽन्याश्च स्त्रियो दुःशक्यवर्णनाः ॥ ६६॥ मनः प्रहरणाकारा दिव्यवस्त्र विभूषणाः । समुद्भवशुभ क्षेत्रभूमयः स्नेहगोत्रजाः ॥६७॥ कलासमस्त सन्दोह फलदर्शनतत्पराः । वृत्ताः समन्ततश्चारुचेतसो लोभनोद्यताः ॥ ६८ ॥ सर्वादरेण भरतं जगदुर्हारिनिःस्वनाः । वातोद्धूतनवोदार पद्मिनीखण्डकान्तयः ॥ ६६॥ देवर क्रियतामेकः प्रसादोऽस्माकमुन्नतः । सेवामहे जलक्रीडां भवता सह सुन्दरीम् ॥१००॥ स्यज्यतामपरा चिंता नाथ मानसखेदिनी । भ्रातृजायासमूहस्य क्रियतामस्य सुप्रियम् ॥ १०१ ॥
बने उसी तरह सम्बन्ध जोड़ना चाहिए || ८६|| हाथियों की भीड़से भयङ्कर युद्धमें शत्रुसमूहको जीतकर नन्द आदि पूर्व बलभद्र और नारायणोंके समान आपने जो लक्ष्मी उपार्जित की है वह यद्यपि बहुत बड़ी है तथापि मुझे संतोष उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं है । जिस प्रकार गङ्गा नदी समुद्र को तृप्त करने में समर्थ नहीं है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मुझे तृप्त करनेमें समर्थ नहीं है, इसलिए अब तो मैं यथार्थ मार्ग में ही प्रवृत्त होता हूँ || ८७-८८ ॥ इस प्रकार कहकर तथा उनसे पूछकर तीव्र संवेग से युक्त भरत संभ्रमके साथ भरत चक्रवर्तीकी नाई शीघ्र ही सिंहासन से उठ खड़ा हुआ ॥८६॥ अथानन्तर मनोहर गतिको धारण करनेवाला भरत ज्यों ही वनको जानेके लिए उद्यत हुआ त्योंही लक्ष्मणने स्नेह और संभ्रमके साथ उसे रोक लिया अर्थात् उसका हाथ पकड़ लिया ||१०|| अपने हाथसे लक्ष्मणके करपल्लवको अलग करता हुआ भरत जब तक अविरल अश्रुवर्षा करनेवाली माताको समझाता है तब तक रामकी आज्ञासे, जिनकी लक्ष्मी के समान चेष्टाएँ थीं तथा जिनके नेत्र वायुसे कम्पित नील कमलके समान थे ऐसी भरतकी स्त्रियाँ आकर उसके प्रति रोदन करने लगीं ॥६१-६२॥ इसी बीच में शरीरधारिणी साक्षात् लक्ष्मीके समान सीता, उर्वी, भानुमती, विशल्या, सुन्दरी, ऐन्द्री, रत्नवती, लक्ष्मी, सार्थक नामको धारण करने वाली गुणवती, कान्ता, बन्धुमती, भद्रा, कौबेरी, नलकूबरा, कल्याणमाला, चन्द्रिणी, मानसोत्सवा, मनोरमा, प्रियानन्दा, चन्द्रकान्ता, कलावती, रत्नस्थली, सुरवती, श्रीकान्ता, गुणसागरा, पद्मावती, तथा जिनका वर्णन करना अशक्य है ऐसी दोनों भाइयोंकी अन्य अनेक स्त्रियाँ वहाँ आ पहुँचीं ॥६३-६६ ॥ उन सब स्त्रियोंका आकार मनको हरण करनेवाला था, वे सब दिव्य वस्त्राभूषणों से सहित थीं, अनेक शुभभावोंके उत्पन्न होनेकी क्षेत्र थीं, स्नेह की वंशज थीं, समस्त कलाओं के समूह एवं फलके दिखाने में तत्पर थीं, घेरकर सब ओर खड़ी थीं, सुन्दर चित्तकी धारक थीं, लुभावनेमें उद्यत थीं, मनोहर शब्दोंसे युक्त थीं, तथा वायुसे कम्पित कमलिनियों के समूह के समान कान्तिकी धारक थीं । उन सबने बड़े आदर के साथ भरत से कहा ||६७-६६ ॥ कि देवर ! हम लोगों पर एक बड़ी प्रसन्नता कीजिए। हम लोग आपके साथ मनोहर जलक्रीड़ा करना चाहती हैं ॥ १०० ॥ हे नाथ ! मनको खिन्न करनेवाली अन्य चिन्ता छोड़िए, और अपनी १. भरत चक्रवर्तीव । २. वृताः म० । ३. वातोद्भूत म० । ४. मपरां म० । ५. चिन्तां म० । १७-३
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