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पद्मपुराणे
पुरन्दरसमरछायं दृष्ट्रा चक्रधरं तदा । अस्रान्वितेक्षणा साध्वी जानकी परिषस्वजे ॥५६॥ उवाच च यथा भद्र गदितं श्रमणोत्तमैः । महाज्ञानधरैः प्राप्तं पदमुच्चैस्तथा त्वया ॥६॥ स त्वं चक्राकराज्यस्य भाजनत्वमुपागतः । न हि निम्रन्थसम्भूतं वचनं जायतेऽन्यथा ॥६॥ एषोऽसौ बलदेवत्वं तव ज्येष्ठः समागतः । विरहानलमग्नाया येन मे जनिता कृपा ॥६२॥ उडुनाथांशु विशदद्युतिस्तावदुपाययौ । स्वसुःसमीपधरणी श्रीभामण्डलमण्डितः ॥६३॥ दृष्टा तं मुदितं सीता सौदर्यस्नेहनिर्भरा। रणप्रत्यागतं वीरं विनीतं परिषस्वजे ॥६॥ सुग्रीवो वायुतनयो नलो 'नीलोऽङ्गदस्तथा । विराधितोऽथ चन्द्राभः सुषेणो जाम्बवो बली ॥६५॥ जीमूतशल्यदेवाचास्तथा परमखेचराः । संश्राव्य निजनामानि मूर्ना कृत्वाभिवादनम् ॥६६॥ विलेपनानि चारूणि वस्त्राण्याभरणानि च । पारिजातादिजातानि माल्यानि सुरभीणि च ॥६७॥ सीताचरणराजीवयुगलान्तिकभूतले । अतिष्ठिपन् सवर्गादिपात्रस्थानि प्रमोदिनः ॥६॥
उपजातिवृत्तम् उचुश्च देवि त्वमुदारभावा सर्वत्र लोके प्रथितप्रभावा । श्रिया महत्या गुणसम्पदा च प्राप्ता पदं तुङ्गतमं मनोज्ञम् ॥६६॥ देवस्तुताचारविभूतिधानी प्रीताऽधुना मङ्गलभूतदेहा।
जीया जयश्रीबलदेवयुक्ता प्रभारवेर्यद्वदुदात्तलीला ॥७०॥॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्त पद्मपुराणे सीतासमागमाभिधानं नामकोनाशीतितमं पर्व ॥७॥ लक्ष्मण सीताके चरण युगलको नमस्कार कर सामने खड़े हो गये ॥५८॥ उस समय इन्द्रके समान कान्तिके धारक. चक्रधरको देख साध्वी सीताके नेत्रों में वात्सल्यके अश्रु निकल आये और उसने बड़े स्नेहसे उनका आलिङ्गन किया ||५|| साथ ही उसने कहा कि हे भद्र ! महाज्ञानके धारक मुनियोंने जैसा कहा था वैसा ही तुमने उच्च पद प्राप्त किया है ।।३०।। अब तुम चक्र चिह्नित राज्य-नारायण पदकी पात्रताको प्राप्त हुए हो। सच है कि निर्ग्रन्थ मुनियोंसे उत्पन्न वचन कभी अन्यथा नहीं होते ॥६१।। यह तुम्हारे बड़े भाई बलदेव पदको प्राप्त हुए हैं जिन्होंने विरहाग्निमें डूबी हुई मेरे ऊपर बड़ी कृपा की है ॥६॥ इतने में ही चन्द्रमाकी किरणोंके समान कान्तिको धारण करनेवाला भामण्डल बहिनकी समीपवर्ती भूमिमें आया ॥६३।। प्रसन्नतासे भरे, रणसे लौटे उस विजयी वीरको देख, भाईके स्नेहसे युक्त सीताने उसका आलिङ्गन किया ॥६४॥ सुग्रीव, हनूमान्, नल, नील, अङ्गद, विराधित, चन्द्राभ, सुषेण, बलवान् जाम्बव, जीमूत और शल्यदेव आदि उत्तमोत्तम विद्याधरोंने अपने-अपने नाम सुनाकर सीताको शिरसे अभिवादन किया ॥६५-६६॥ उन सबने हर्षसे युक्त हो सीताके चरणयुगलकी समीपवर्ती भूमिमें सुवर्णादिके पात्रमें स्थित सुन्दर विलेपन, वस्त्र, आभरण और पारिजात आदि वृक्षोंकी सुगन्धित मालाएँ भेट कीं ॥६७-६८॥ तदनन्तर सबने कहा कि हे देवि! तुम उत्कृष्ट भावको धारण करने वाली हो, तुम्हारा प्रभाव समस्त लोकमें प्रसिद्ध है तथा तुम बहुत भारी लक्ष्मी
और गुणरूप सम्पदाके द्वारा अत्यन्त श्रेष्ठ मनोहर पदको प्राप्त हुई हो ॥६।। तुम देवों के द्वारा स्तुत आचाररूपी विभूतिको धारण करनेवाली हो, प्रसन्न हो, तुम्हारा शरीर मङ्गल रूप है, तुम विजय लक्ष्मी स्वरूप हो, उत्कृष्ट लीलाकी धारक हो, ऐसी हे देवि ! तुम सूर्यकी प्रभाके समान बलदेवके साथ चिरकाल तक जयवन्त रहो ॥७०|| इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें सीताके समागमका
__ वर्णन करने वाला उन्यासी वाँ पर्व समाप्त हुआ ॥६॥ १. नीलाङ्गदस्तथा म० । २. येयं म०, जेयं क० । For Private & Personal Use Only
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