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अशीतितम पर्व
महादुन्दुभिनिर्घोषप्रतिमे रामनिस्वने । जानकीस्वनितं जज्ञे वीणानिःकगकोमलम् ।।२७॥ सविशल्यस्ततश्चक्री सुग्रीवो रश्मिमण्डलः । तथा वायुसुताद्याश्च मङ्गलस्तोत्रतत्पराः ॥२८॥ बद्धपाणिपुटा धन्या भाविता जिनपुगवे । गृहीतमुकुलाम्भोजा इव राजन्ति ते तदा ॥२६॥ विमुञ्चत्सु स्वनं तेषु मुरजस्वनसुन्दरम् । मेघध्वनिकृताशङ्का ननृतुश्छेकबहिणः ॥३०॥ कृत्वा स्तुतिं प्रणामं च भूयो भूयः सुचेतसः । यथासुखं समासीनाः प्राङ्गणे जिनवेश्मनः ॥३१॥ यावत्ते वन्दनां चक्रुस्तावद्राजा विभीषणः । सुमालिमाल्यवद्रत्नश्रवप्रभृतिबान्धवान् ॥३२॥ संसारानित्यताभावदेशनात्यन्तकोविदः । परिसान्त्वनमानिन्ये महादुःखनिपीडितान् ।।३३।। आयौं तात स्वकर्मोत्थफलभोजिषु जन्तुषु । विधीयते मुधा शोकः क्रियतां स्वहिते मनः ॥३४॥ रष्टागमा महाचित्ता यूयमेवं विचक्षणाः । विस्थ जातो यदि प्राणी मृत्यु न प्रतिपद्यते ॥३५।। पुष्पसौन्दर्यसङ्काशं यौवनं दुर्व्यतिक्रमम् । पल्लवश्रीसमालचमीर्जीवितं विद्युदध्रुवम् ॥३६॥ जलबुबुदसंयोगप्रतिमा बन्धुसङ्गमाः । सन्ध्यारागसमा भोगाः क्रियाः स्वप्नक्रियोपमाः ॥३७॥ यदि नाम प्रपरन् जन्तवो नैव पञ्चताम् । कथं स भवतां गोत्रमागतः स्याद्भवान्तरात् ॥३८॥ मात्मनोऽपि यदा नाम नियमाद्विशरारुता। तदा कथमिवात्यर्थ क्रियते शोकमूढता ॥३६॥ एवमेतदिति ध्यानं संसाराचारगोचरम् । सतां शोकविनाशाय पर्याप्तं क्षणमात्रकम् ॥४०॥
भाषितान्यनुभूतानि दृष्टानि च सुबन्धुभिः। समं वृत्तानि साधूनां तापयन्ति मनः क्षणम् ॥४१॥ रामका स्वर महादुन्दुभिके स्वरके समान अत्यन्त परुष था तो सीताका स्वर वीणाके स्वरके समान अत्यन्त कोमल था ॥२७॥ तदनन्तर विशल्या सहित लक्ष्मण, सुग्रीव, भामण्डल तथा
मान आदि सभी लोग मजलमय स्तोत्र पढनेमें तत्पर थे ॥२८॥ जिन्होंने हाथ जोड़ रक्खे थे तथा जो जिनेन्द्र भगवान्में अपनी भावना लगाये हुए थे, ऐसे वे सब धन्यभाग विद्याधर उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानो कमलकी बोड़ियाँ ही धारण कर रहे हो ॥२६॥ जब वे मृदङ्ग ध्वनिके समान सुन्दर शब्द छोड़ रहे थे तब चतुर मयूर मेघगर्जनाकी शङ्का करते हुए नृत्य कर रहे थे ॥३०॥ इसप्रकार बार-बार स्तुति तथा प्रणाम कर शुद्ध हृदयको धारण करनेवाले वे सब जिन मन्दिरके चौकमें यथोयोग्य सुखसे बैठ गये ॥३१॥
जब तक इन सबने वन्दनाकी तब तक राजा विभीषणने समाली, माल्यवान तथा रत्नश्रवा आदि परिवारके लोगोंको जो कि महादुःखसे पड़ित हो रहे थे सान्त्वना दी। विभीषण संसारकी अनित्यताका भाव बतलाने में अत्यन्त निपुण था ॥३२-३३।। उसने सान्त्वना देते हुए कहा कि हे आर्यो ! हे तात ! संसारके प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार फलको भोगते ही हैं अतः शोक करना व्यर्थ है आत्महितमें मन लगाइए ॥३४॥ आप लोग तो आगमके दृष्टा, विशाल हृदय और विज्ञपुरुष हैं अतः जानते हैं कि उत्पन्न हुआ प्राणी मृत्युको प्राप्त होता है या नहीं ॥३५॥ जिसका वर्णन करना बड़ा कठिन है ऐसा यौवन फूलके सौन्दयके समान है, लक्ष्मी पल्लवकी शोभाके समान है, जीवन बिजलीके समान अनित्य है ॥३६॥ बन्धु जनोंके समागम जलके बबूलेके समान हैं, भोग सन्ध्याकी लालीके तुल्य है, और क्रियाएँ स्वप्नकी क्रियाओंके समान हैं ॥३७॥ यदि ये प्राणी मृत्युको प्राप्त नहीं होते तो वह रावण भवान्तरसे आपके गोत्रमें कैसे आता ? ॥३८॥ अरे! जब हम लोगोंको भी एक दिन नियमसे नष्ट हो जाना है तब यह शोक विषयक मूर्खता किस लिए की जाती है ? ॥३६॥ 'यह ऐसा है' अर्थात् नष्ट होना इसका स्वभाव ही है इस प्रकार संसारके स्वभावका ध्यान करना सत्पुरुषों के शोकको क्षणमात्रमें नष्ट करनेके लिए पर्याप्त है। भावार्थ-जो ऐसा विचार करते हैं कि संसारके पदार्थ नश्वर ही हैं उनका शोक क्षण मात्रमें नष्ट हो जाता है ।।४०॥ बन्धुजनोंके साथ कथित,
१. प्रतिमां म० । २. मृत्युम् । ३. सम्भवतां म०। ४. मागतं ख० ।
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