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अशीतितमं पर्व
मारीचः कल्पवासित्वं प्राप्याऽन्ये च महर्षयः । सस्वं यथाविधं यस्य फलं तस्य तथाविधम् ॥१४३॥ वैदेह्याः पश्य माहात्म्यं दृढव्रतसमुद्भवम् । यथा सम्पालितं शीलं द्विषन्तश्च विवर्जिताः ॥ १४४ ॥ सीताया अतुलं धैर्यं रूपं सुभगता मतिः । कल्याणगुणपूर्णायाः स्नेहबन्धश्च भर्तरि ॥ १४५ ॥ शीलतः स्वर्गगामिन्या स्वभर्तृपरितुष्टया । चरितं रामदेवस्य सीतया साधु भूषितम् ॥ १४६ ॥ एकेन व्रतरत्नेन पुरुषान्तरवर्जिना | स्वर्गारोहणसामर्थ्यं योषितामपि विद्यते ॥ १४७ ॥
योsपि मायया तीव्रः कृत्वा प्राणिवधान् बहून् । प्रपद्य वीतरागत्वं पापलब्धीः सुसंयतः ॥ १४८ ॥ उवाच श्रेणिको नाथ ! श्रुतमिन्द्रजितादिजम् । माहात्म्यमधुना श्रोतुं वाञ्छामि मयसम्भवम् ॥ १४६ ॥ सन्त्यन्याः शीलवत्यश्च नृणां वसुमतीतले । स्वभर्तृनिरतात्मानस्ता नु किं स्वर्गभाविताः ||१५० ॥
यूचे यदि सीताया निश्चयेन व्रतेन च । तुल्याः पतिव्रताः स्वर्गं व्रजन्त्येव गुणान्विताः ॥ १५१ ॥ सुकृतासुकृतास्वाद निस्पन्दीकृतवृत्तयः । शीलवत्यः समा राजन् ननु सर्वा विचेष्टितैः ॥१५२॥ वीरुदश्वेभ लोहानामुपलमवाससाम् । योषितां पुरुषाणां च विशेषोऽस्ति महान् नृप ॥१५३॥ न हि चित्रभृतं वत्यां वल्ल्यां कूष्माण्डमेव वा । एवं न सर्वनारीषु सद्वृत्तं नृप विद्यते ॥ १५४ ॥ पतिव्रताभिमाना प्रागतिवंशसमुद्भवा । शीलाङ्कुशादिनियता प्राप्ता दुर्मतवारणम् ॥१५५॥
धारण करने वाले तथा महान् धैर्यके धारक उन मय मुनिने देवागमनसे सेवित ऋषभादि तीर्थकरों के कल्याणक प्रदेशोंके दर्शन किये || १४२ || मारीच मुनि कल्पवासी देव हुए तथा अन्य महर्षियोंने जिसका जैसा तपोबल था उसने वैसा ही फल प्राप्त किया || १४३ || गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! शीलव्रतकी दृढ़तासे उत्पन्न सीताका माहात्म्य तो देखो कि उसने शीलवतका पालन किया तथा शत्रुओंको नष्ट कर दिखाया ॥ १४४ ॥ कल्याणकारी गुणों से परिपूर्ण सीताका धैर्य, रूप, सौभाग्य, बुद्धि और पति विषयक स्नेहका बन्धन - सभी अनुपम था || १४५ ।। जो शीलव्रत के प्रभाव से स्वर्गगामिनी थी तथा अपने पतिमें ही सन्तुष्ट रहती थी ऐसी सीताने श्रीराम देवके चरितको अच्छी तरह अलंकृत किया था ॥ १४६ ॥ पर-पुरुषका त्याग करने वाले एक व्रत रूपी रत्नके द्वारा स्त्रियों में भी स्वर्ग प्राप्त करनेकी सामर्थ्य विद्यमान है || १४७ || जिस विकट मायावी मयने पहले अनेक जीवोंका वध किया था, अब उसने भी वीत राग भावको धारण कर उत्तम मुनि हो अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त की थीं ॥ १४८ ॥
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तदनन्तर राजा श्रेणिकने कहा कि हे नाथ! मैंने इन्द्रजित् आदिका माहात्म्य : तो लिया सुन है अब मयका माहाम्य सुनना चाहता हूँ ॥ १४६ ॥ हे भगवन् ! इस पृथिवी तल पर मनुष्यों की और भी शीलवती ऐसी स्त्रियाँ हुई हैं जो कि अपने पतिमें ही लीन रही हैं सो क्या वे सब भी स्वर्गको प्राप्त हुई हैं ? ॥ १५० ॥ इसके उत्तर में गणधर बोले कि यदि वे निश्चय और व्रतकी अपेक्षा सीता के समान हैं, पातिव्रत्य धर्मसे सहित एवं अनेक गुणोंसे युक्त हैं तो नियम से स्वर्गको ही जाती हैं ।। १५१ ॥ हे राजन् ! पुण्य, पापका फल भोगने में जिनकी आत्मा निश्चल है अर्थात् जो समता भाव से पूर्वकृत पुण्य, पापका फल भोगती हैं ऐसी सभी शीलवती स्त्रियाँ अपनी चेष्टाओंसे समान ही होती हैं ।। १५२ || वैसे हे राजन् ! लता, घोड़ा, हाथी, लोहा, पाषाण, वृक्ष, वस्त्र, स्त्री और पुरुष इनमें परस्पर बड़ा अन्तर होता है || १५३ || जिस प्रकार हरएक लतामें न ककड़ी फलती है और
कुम्हड़ा ही, इसी प्रकार हे राजन् ! सब स्त्रियोंमें सदाचार नहीं पाया जाता ||१५४ || पहले अनिवंश उत्पन्न हुई एक अभिमाना नाम की स्त्री हो गई है जो अपने आपको पतिव्रता प्रकट करती थी किन्तु यथार्थमें शील रूपी अङ्कुश से रहित हो दुर्मत रूपी वारणको प्राप्त हुई थी । भावार्थ
२. महानृपः म० ।
१. प्राप लब्धीः म० । टिप्पण्याम् ) । ४. च प्रति म०
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३. चित्रभृतं ख०, कर्कटिका ( श्रीचन्द्रमुनिकृत
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